Monday, April 19, 2010

धर्म

पिछले १ महीने से मैं कई बार सोंच चूका हूँ, लेकिन समय की कमी और काम में व्यस्तता से उभर कर इस आर्टिकल को लिखने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था, अंततः आज मुझे वह समुचित समय मिल ही गया जब मैं इस आर्टिकल को लिख सक रहा हूँ!

आज जब भारत आज़ाद है, और इस आज़ाद भारत में १.२ अरब जितने लोग रहते हैं, तब लोगों को जितनी रोजी रोटी और घर, परिवार की नहीं पड़ी, उससे ज्यादा वे धर्म और जाती के पीछे भाग रहे हैं, किसीको मंदिर चाहिए, तो किसीको मस्जिद, किसीको गुरुद्वारा चाहिए, तो किसीको गिरिजा-घर! देश में हर रोज करीब २७० नवजात शिशु सड़कों, कचरे के डब्बों और नालियों के किनारे फेके हुए पाए जाते हैं, कोई उन्हें घर दिलवाने का नहीं सोच सकता, लेकिन धर्म को मजबूत कैसे करें, ये सोचने का समय हर किसीके पास है, इस संख्या को कम कैसे किया जाए, इसपर कोई ध्यान नहीं देता, लेकिन धार्मिक दंगों को अंजाम दे कर और भी हज़ारों नवजात शिशुओं को बेघर और अनाथ बनाने का जोखिम हर कोई उठाने को तैयार दीखता है, जिसे देखो अपनी रट लगाये बैठा है, "मैं हिन्दू हूँ", "मैं मुसलमान हूँ", "मैं सिक्ख हूँ" और "मैं इसाई हूँ" कोई माइनोरिटी कहलाता है तो कोई मजोरिटी कहलाता है, किसीको किसीके नवाज़ से परेशानी है, तो किसीको किसीके मन्त्रों से नफरत, इन्ही बातों में उलझे पड़े हैं सभी, और तो और, इतना ही जैसे कम था, अब फॉरवर्ड-बक्वोर्ड और पिछड़ी जाती एवं जनजाति के नाम की एक नयी लड़ाई सुरु कर दी सबने, कोई जाट है तो उसे आरक्षण चाहिए और कोई खुद को दलित कह कर सत्ता पर काबिज़ हो बैठा है, खुद के बनाये इस धर्म और जाती रूपी दलदल में लोग खुद ही इस कदर फंस और उलझ चुके हैं, की किसी को यह नहीं दिख रहा की वो इन सब के चक्कर में अपना असली धर्म पुर्णतः भूल चुके है! "असली धर्म" जिसमे न तो कोई हिन्दू है, और न कोई मुसलमान, न कोई सिक्ख और न ही इसाई, उस धर्म को "मानवता" का नाम दिया गया है, जहाँ केवल और केवल प्यार ही प्यार भरा हुआ है, लेकिन अफ़सोस तो इस बात की है, कि आज किसीको यह धर्म दिख नहीं रहा, हर व्यक्ति एक दुसरे के खून का प्याशा है!

इस विषय पर मैंने कुछ सज्जनों की राय जाननी चाहि, जान कर बड़ी ही हैरानी हुई, क्यूंकि उनमे से सभी का झुकाव अपने अपने धर्म के प्रति था, कुछ तो इतने कट्टर थे की अगर उन्हें आधी रात को भी उनके धर्म के ओर से लड़ने को कहा जाए, तो वो बिना कुछ कहे बड़ी सहजता से किसीकी भी जान ले लेने को तैयार दिखेंगे, लेकिन उनमे से एक भी ऐसा नहीं दिखा, जो मानवता रूपी धर्म के प्रति थोड़ी भी श्रद्धा रखता हो, कोई कह रहा था, "दिनों दिन मुसलामानों की संख्या हमारे देश में बढती जा रही है" कोई कह रहा था की " दिनों दिन हम हिन्दुओं को दबाया जा रहा है" तो कोई कहता था की "लोगों को रोटी, कपडा ओर माकन दे कर उनका धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है, उन्हें इसाई बनाया जा रहा है" लेकिन किसीने यह नहीं कहा, की "हर बार धार्मिक दंगों में हजारों माओं की कोख उजड़ जाती है, हज़ारों औरतों का सुहाग छीन जाता है और लगभग उतने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं", कहीं कोई मंदिर गिराना चाहता है, तो कोई मस्जिद गिराना चाहता है, लेकिन कोई एक बेघर का घर बसाने की बात नहीं करता, धर्म के नाम पर औरतों को विधवा बनाने वाले लोग कभी किसी गरीब की बेटी का व्याह करवाने का नहीं सोचते!

कल का तो पता नहीं, कल किसने देखा है, लेकिन आज मुझे यह सोंच कर खुद पर बहुत शर्म आ रही है की मैं भी उन्ही धर्मों में से एक धर्म का हिस्सा हूँ, और मेरा धर्म भी हज़ारों बेगुनाहों की ज़िन्दगी छिनने का एक बहुत ही बड़ा कारक है, क्या मतलब बनता है भारत की ऐसी आज़ादी का? और क्या मतलब बनता है ऐसे धर्म का, जिसके वजह से इतने बेकसूर बेवजह मारे जा रहे हैं, कोई जेहाद चला रहा है तो कोई शिव, हनुमान और राम के नाम की शेना बना रहा है, कोई किसीका धर्म परिवर्तन करवा रहा है तो कोई मंदिरों और गुरुद्वारों पर सोने जाडवा रहा है! आज सुच मच ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मानवता मर चुकी है, अब कोई मानवता नमक धर्म हमारे इस संसार में बचा ही नहीं है, अब तो शायद धरती भी खुद पर रो देगी और खुद ही प्रकृति से प्रलय का श्राप मांग लेगी, की उसने कैसे मानवों का बोझ उठा रक्खा है, जिनमे जरा भी मानवत बची ही नहीं है!

पिछले कुछ सप्ताहों में मैंने काफी सारे लोगों के ब्लोग्स को पढ़ा और उनके विचारों को जाना, काफी कुछ सिखने को मिला, लेकिन जिसकी मै तलाश कर रहा था, वो अब तक नहीं मिल पाया था कहीं, शायद मेरी तलाश में ही कोई कमी या त्रुटी रही होगी, अब आज मैं खुद ही अकेला धर्म के इस तांडव को लिख रहा हूँ, अगर मेरे इस आर्टिकल से एक भी व्यक्ति को मैं मानवता के राह पर एक कदम भी आगे बाढा सका, तो मैं समझूंगा की मेरा लिखना सफल हो गया, आशा है आप सब का साथ टिप्पणियों के रूप में जरुर मिलेगा!







अमित~~

Friday, April 16, 2010

माँ अब मैं क्या करूँ?

रातें तो हमेशा काली थीं,
अब दिन भी मेरा अंधेरा हैं,
कबसे आश लगा बैठा हूँ,
नहीं दीखता कहीं सबेरा है,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


पता नहीं इस पगडण्डी पर,
कितने ठोकर और पड़ेंगे,
आगे बढते हुए पाँव में,
कितने कांटें और चुभेंगे,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


जीवन के इस पगडण्डी पर,
खो बैठा हूँ शायद खुदको,
कदम बढाता हूँ आगे जब,
राह चुभते बन कंकड़-पत्थर,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


आंशु रोक रखे हैं मैंने,
पर दिल की धड़कन तेज है,
थक चुका हूँ मैं अब अकेला,
धुन्ड़ता हुआ बस एक सवेरा,
अगर मिला ना वो अब भी मुझको !

तो तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?



अमित~~

Monday, April 5, 2010

अधुरा बचपन

कल अचानक किसी सज्जन के ब्लॉग की लिंक मिली, और ब्लॉग पर पहुँच कर पता चला की उन सज्जन को तो मै कई वर्षों से जनता हूँ, काफी समय से उनसे कोई संपर्क नहीं हो पाया है, इसी वजह से शायद उनके ब्लॉग के सम्बन्ध में मुझे कोई जानकारी नहीं थी, खैर, उनके ब्लॉग में एक बड़ा ही अच्छा आर्टिकल देखा, आर्टिकल दादी और पोते के रिश्ते पर आधारित था, आर्टिकल का हर हिस्सा यही कहता था की एक दादी अपने पोते से कितना प्यार करती है, किस तरह पोते अपनी दादी से रातों में कहानियां सुनते हुए सोया करते हैं, और किस तरह दादी उसके पोते के खिलाफ एक भी बुरी बात सह नहीं सकती!

इस आर्टिकल को पढ़ते वक़्त मन में एक अजीब से जलन की भाव आ रही थी, खुद के अभागेपन पर तो गुस्सा आ ही रहा था, साथ ही अपने दादी, दादा, नाना और नानी पर भी गुस्सा आ रहा था, मेरे इस गुस्से का कारण भी शायद सही था, क्युकी बचपन से जिसने दादा, दादी, नाना या नानी का प्यार क्षण भर के लिए भी न पाया हो, उसे दूसरों के मुह से दादी, दादा, नानी और नाना के प्यार और किस्से कहानियों की बातें सुन कर शायद ऐसा ही महसूस होगा! आज तक हॉस्टल में भी जब मेरे दोस्त मुझे अपने दादा या दादी के लाड प्यार की बातें बताते थे, तब भी मुझे ऐसा ही महसूस होता था, लेकिन आज जलन इतनी बढ गई की हाथ लिखने तक को उठ पड़े!

मेरी नानी को तो मै कोई दोष न ही दूँ तो बेहतर होगा, क्यूंकि वो बिचारी तो तब ही भगवन को प्यारी हो गई थी , जब मेरी माँ केवल १२ वर्ष की थी, तब तो इस दुनिया में मेरा नामो-निशाँ तक नहीं था, लेकिन जब बात दादी, दादा, और नाना पर आ कर रूकती है, तब मेरे मन में ढेरो सवाल उठने लगते हैं, मनन पूछने लगता है की आखिर हम दोनों भाइयों का कुशुर क्या था? यही की हमसे पहले हमारे दादा और दादी के ९ पोते और ५ पोतियाँ हो चुके थे, इसी लिए उनके मन में हमारे प्रति कोई लगाव ही नहीं बचा था, बचपन में हमारे सामने हमारे ही दादा दादी अपने दुसरे पोते पोतियों को मेले घुमाने ले जाते थे, लेकिन कभी हमसे उन्होंने पुचा तक नहीं, की क्या हम भी उनके साथ घुमने आना चाहते है? जब हमारे चचेरे भाई बहिन मेले से वापिस आते, तो उनके पास मेले से ख़रीदे हुए खिलोने होते, वे लोग हमें उन खिलोनो को दिखा कर खुद में इतराते, लेकिन हम बिचारे दोनों भाई मन ही मन ये सोच कर रह जाते, की उनके पास मिटटी के खिलोने है तो क्या हुआ, हमारे पास उनसे अच्छे खिलोने है, जो की बैट्री से चलते है, लेकिन मन में ये मलाल जरुर रह जाता था, की हमें दादा दादी ने कुछ नहीं दिलवाया, हमारे शहर में एक बड़ा ही फेमस २ दिनों का मेला लगता है, जिसे लोग "तपो वन" के मेले के नाम से जानते है, इस मेले में आपको ज्यादातर बच्चे अपने दादा दादी के साथ ही दिखेंगे, लेकिन आपको जान कर बड़ा आश्चर्य होगा, की मैंने आज तक वो मेला नहीं देखा है! और कारण बस इतनी सी थी, की पापा तो काम में हमेशा व्यस्त रहे और माँ रीती रिवाजो से बंधे रहने के कारण घर से अकेली बहार नहीं जा सकती थी, और हमारे प्रिय दादा दादी के लिए तो हम शायद इस दुनिया में रहते ही नहीं थे! दादा दादी की एक और भी खासियत थी, कही भी जाये, कभी भी जाये, अपने नाती नातनियों के लिए खिलोने खरीदना नहीं भूलते थे, लेकिन हम दोनों पोते ही शायद उनके आँखों में चुभते थे, कभी उनके मन में तनिक ख्याल तक नहीं आता की हमें भी थोडा प्यार दे दें , लेकिन हाँ, दादी को अपने बेटे (मेरे पिता) पर बड़ा प्यार आता था, क्यूंकि खुद के खर्चे के लिए बेटे से पैसे जो मिलते थे, हसी आती है जब इस विषय पर सोचता हूँ तो, की किस कदर लोग अपने स्वार्थ वस् कही भी झुक जाते हैं, और स्वार्थ पूरा होते ही गिरगिट के तरह रंग बदल लेते हैं!

अब बात आती है हमारे श्री श्री १०८ नाना जी की, इनका भी कुछ ऐसा ही हाल था, हमसे २०-२० साल बड़े मौसेरे भाइयों को तो नाना जी का खूब प्यार मिला, लेकिन हम २ भाई ही शायद करमजले पैदा हुए थे, हमारे पैदा होने से पहले ही नाना जी के ४ पोते भी पैदा हो चुके थे, अब नाना जी को अपने पोतो के अलावा दुनिया कही नज़र ही नहीं आती थी शायद, उनका सोचना था की उनकी जिम्मेदारी केवल उनके पोतों के प्रति ही है, नातियो के प्रति अब उनकी कोई जम्मेदारी नहीं, और इस बात का खामियाजा भुगतने के लिए भी बस हम २ भाई ही बच गए थे! दादा दादी के लाड प्यार और किस्से कहानियों से तो वंचित रह ही गए थे हम, अब नाना ने भी नकार दिया!

कभी कभी सोंचता हूँ की अजीब खेल है किस्मत का भी, जिसने हमें कभी ये जान्ने तक का मौका नहीं दिया की दादा दादी और नाना नानी किस तरह किस्से और कहानियां सुनते हैं, किस तरह दादी को पोते से प्यार और लगाव होता है, लोग कहते है की दादी वो जादूगर होती है, जिसके प्राण उसके पोते रूपी तोते के अन्दर होता है, लेकिन किस्मत का खेल देखिये, हमें तो कभी ऐसा तोता बन्ने का मौका ही नहीं मिला, दादी को उसका कुरूप पोता भी सुन्दर दीखता है, लेकिन, लेकिन यहाँ तो हमें यही पता चल पाया, की "दादी को पोता दीखता ही नहीं है", हमारे लिए तो हमारे माता पिता ही हमारे दादा दादी और हमारे माता पिता ही हमारे नाना नानी थे, जो भी प्यार मिला, बस उनसे ही मिला, खिलौने भी उन्होंने ही दिलाया और कहानियां भी उन्होंने ही सुनाई!

कितना अजीब लगता है, लोग इन छोटी छोटी बातों का ख़याल नहीं रखते, लेकिन शायद ये भूल जाते हैं की ये छोटी बातें किसी के लिए बहुत मायने रखती हैं, और ये ही बातें जब बुजुर्ग नज़र अंदाज़ कर जाते है, तो बच्चों के मन में ये बात इस कदर घर कर जाती हैं की विष का एक ज्वालामुखी बना देती हैं, बच्चे अपनी पूरी जिंदगी इन बातों को जब जब याद करते हैं तब तब उनके मनन की ये ज्वालामुखी फट पड़ती है, और वो खुद को ही अभागा समझ कर सांत हो जाते हैं, मैंने आज ये बात अपने इस ब्लॉग में इस लिया रखना उचित समझा, ताकि मेरे ही जैसे किसी एक भी बच्चे के बुजुर्ग अगर इस कहानी को पढ़ कर या सुन कर उन्हें थोडा भी लाड प्यार दे दें, तो मै समझूंगा की मेरे इस आपबीती को लिखने का उद्देश्य सफल रहा!





अमित~~

Thursday, April 1, 2010

इन्तेजार सुबह का

यूँ तो कहने को आज मानव ने काफी तरक्की और खोजें कर ली है, लेकिन क्या सच में मानव इन खोजों और तरक्कियों का सही उपयोग कर पा रहा है? क्या वह इन तरक्कियों से सच मच खुश है? या फिर ये सारे खोज उसके लिए भस्मासुर को दिया शिव का वरदान साबित हो रहा है? आज मुझे मेरी ८ वीं कक्षा की वो वाद-विवाद प्रतियोगिता याद आ रही है, जिसमे हमारे प्रधानाचार्य ने हमें गालिभ की कही एक बात बताई थी, "सावधान ऐ मनुष्य, यदि विज्ञान है तलवार, तो तज कर दे उसे फेंक मोह स्मृति के पार" शायद गालिभ को उस समय बखूबी यह एहसास हो चूका था की विज्ञान के आविष्कारों का मनुष्य गलत उपयोग करेगा, और परिणाम भी खुद उसे हे भोगना पड़ेगा!

आज जब अखबार या किसी समाचार पत्रिका पर नजर डालता हूँ, तो हर पन्ने पर एक आतंकवादी गतिविधि या तो किसी उग्रवादी के द्वारा किया गया बम बिस्फोट जैसी ही घटनाएँ नज़र आती हैं, आज तक टीवी, रेडियो, इन्टरनेट या फिर समाचार पत्रिकाओं में देखि, सुनी या पढ़ी घटनाओं से वैसा एहसास या अनुभव नहीं हो पाया था, जो आज मैंने महसूस किया!

सुबह ८:०० बजे हर रोज की तरह मैं हॉस्पिटल के लिए निकल चूका था, हॉस्पिटल पहुच कर पाया की हॉस्पिटल पर पुलिस की टुकडियां मौजूद हैं, जब मैं ड्यूटी पर पंहुचा टब एक पतिएन्त ने बताया की करीब ४० मिनट पूर्व मोस्को के "लुब्लियांका" मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो ट्रेन के २ रे डब्बे के अन्दर एक जोरदार बम धमाका हुआ, जिसमे करीब २५ लोगों के मरने की खबर है, जबकि २५ से भी ज्यादा लोग घायल बताये जा रहे हैं! मनन थोडा विचलित हो गया, क्यूंकि मई भी वह से काफी पास ही रहता हूँ, लोगों ने बताया की मेट्रो स्टेशन के कैमरा से पता चला की एक औरत ने अपने शारीर पर बम बाँध कर इस धमाके को अंजाम दिया, मनन ही मन मैं सोच रहा था, की जननी कही जाने वाली एक औरत ऐसे काम करने से पहले क्या खुद के बच्चे का चेहरा देखना भूल जाती हैं? क्या उसे ये समझ नहीं होता की अगर ऐसे ही किसी धमाके में उसके खुद की औलाद मर जाए तो उसपर क्या बीतेगी? इन्ही सवालों में उलझा हुआ मैं अपने सेनिओर डॉक्टर के केबिन में पंहुचा, डॉक्टर को मरीजों की हिस्टरी दे कर मैं वहां से कुछ अन्य मरीजों की हिस्टरी ले हे रहा था कि डॉक्टर साहब ने मुझसे पुचा, अमित, तुम्हारे देश में तो ये हर रोज होता है, कैसे रहते हैं लोग वहां? क्या उन्हें डर नहीं लगता? यह सुन कर मैं कुछ देर चुप रहा, तभी अचानक टीवी पर खबर आई कि इस बार फिरसे मास्को मेट्रो के हे पार्क कुल्तुरनी स्टेशन पर एक और ट्रेन में धमाका हुआ, और इस बार भी एक महिला ने ही अपने शारीर पर बम बांध कर धमाके को अंजाम दिया, और इस बार करीब १६ लोगों कि मृत्यु हुई है और २० से ज्यादा घायल बताये जा रहे हैं!

यह सुन कर डॉक्टर साहब ने कहा, अब तो मुझे सच में चिंता हो रही है, ये लोग ऐसा क्यूँ करते हैं? मैंने बस यूँ ही जवाब दे दिया, सर , वे लोग पागल हैं, और हमारे पागल खानों में इतनी जगह नहीं बची है कि उन सब को वहां भारती किया जा सके, बस इसी लिए वे लोग उत्पात मचा रहे हैं बहार! इसपर डॉक्टर ने तड़क कर जवाब दिया, तब तो इन सारे पागलों को मार डालना चाहिए, और हाँ हिंदुस्तान में पागलों कि संख्या बेहद ज्यादा है शायद, तभी आये दिन वहां बम धमाके होते रहते हैं, तुम्हारी सरकार उन पागलों का कुछ करती क्यूँ नहीं? मैंने बस इतना ही जवाब दिया, "सर, पागल अगर आपके खुद का भाई या बहिन हो तो उसे आप मार डालेंगे? या फिर उसका इलाज करेंगे?" डॉक्टर ने तो मेरी बात पर हस दिया, और बोले, इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मैं खुद से और उनकी बात से संतुस्ट नहीं हूँ, क्या सच में इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है? या फिर उसका इस्तेमाल करने वाला मनुष्य? मेरे हर सोच में मुझे मंनुस्य जिम्मेदार नज़र आता है, पर अब तक मै ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर कब तक ये मौत का नंगा नाच चलेगा? कब तक हम जेहाद, आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद के नाम पर खड़े खड़े हाथ पर हाथ धरे ये मौत का तमाशा देखते रहेंगे? कब तक मनुष्य अपने ही आविष्कारों का गलत इस्तेमाल करता रहेगा और खुद ही उसका खामियाजा भुगतता रहेगा? कब तक हर माँ अपने बेटे के मरने का सोक मनाती रहेगी और कब तक हर बाप अपने कलेजे को मजबूत बनाता रहेगा?

आज कोई देश अपनी ताकत दिखाने के खातिर विज्ञान का दुरूपयोग कर रहा है, तो कोई आतंकवादी बन कर विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए उसका जवाब दे रहा है, क्या वे इस बात को जरा सोचते भी नहीं, कि जिस परमाणु वैज्ञानिक ने परमाणु उर्जा कि खोज कि थी, उसने इस उर्जा को खोजने के बाद इसका प्रयोग कहा करना चाह था, या फिर जिसने बमों का आविष्कार किया, उसने इसे किस इस्तेमाल के लिए बनाया था? आज अगर मनुष्य अपने इस दुरुपयोगी रवैये से बाज़ आ कर थोड सोंच विचार कर कोई फैश्ला ले, तो उसे पता चलेगा कि हर रोज उसने कितनी माओं को रोने से बचा लिया और कितने हे पिताओं को टूटने से रोक लिया, लेकिन ऐसा होना तो जैसे आज के समय में नामुमकिन हे दीखता है!

अफ़सोस कि बात तो ये है, कि आज हमारी सरकारें भी इनसे नजाद पाने के लिए कोई थोश कदम नहीं उठा रही, महात्मा गाँधी को रास्ट्र पिता कह तो दिया हमने, और विश्व ने उन्हें "विश्व शान्ति दूत" का नाम तो दे दिया, लेकिन उनके विचारों को आतंकवाद के खिलाफ इस्तेमाल में नहीं ला रहा कोई भी, हर किसी को खून के बदले खून और आँख के बदले आँख ही चाहिए, सच्चाई शायद ये है कि इन्हें महात्मा गाँधी नहीं, बल्कि हम्मु राबी ज्यादा पसंद है, और ये हमेशा उसी कि कानून संहिता का उप्याओग करते हैं!

किसीको विज्ञान का सदुपयोग कर अपने देश को आगे बढाने कि नहीं पड़ी, जिसे देखो वो विज्ञान का दुरूपयोग कर पडोशी देश को पीछे करने में लगा है, आतंकवादी अपनी बात मनवाने के लिए बम बिस्फोट करते हैं, सैकड़ों लोगों कि जाने ले कर उनके खून को पानी कि तरह बहाते हैं, तो उग्रवादी रेलवे कि पटरियां उड़ा कर रेल कि दुर्घटना को अंजाम देते हैं!

अफ़सोस तो ये है कि इतना सुब होने पर भी मनुष्य के कानों में जू तक नहीं रैंग रही, और लगातार वो एक के बाद एक ऐसे ही काम करता जा रहा है जिससे मानव जाती गर्त कि ओर कदम डर कदम बढती जा रही है, आज ग्लोबल वार्मिंग से ले कर बम धमाके तक ने एक सामान्य मनुष्य को इतना डरा कर रख दिया है कि वो अपने घर से बहार निकलने से पहले १० बार सोचता है, और इन्ही कारणों से उसने आज खुदको घर पर कैद कर लिया है, पता नहीं कब थमेगा ये बवंडर, और कब होगी एक नयी सुबह, जो हम सुब को रहत और शुकून भरी एक शांत-खुशहाल जिंदगी देगी, "मुझे इन्तिज़ार है उस सुबह का"