Monday, June 14, 2010

सरफरोशी

हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये,
मर मिटे जो अपने वतन पर,
उनको पयामी दीजिये,
यूँ तो पत्थरों में भी बसते हैं हमारे देवता,
देवता बस उनको समझ कर एक बार तो पुजिये!
देवों ने जो कर न दिखाया,
वो कर गुजरे वो नवजवाँ,
शीश अपना मातृभूमि को चढ़ा कर,
हो अमर वो चल दिए,
हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये!
खून जलता था वो उनका,
माँ के जंजीरों को देख कर,
रक्त अपना बहा कर,
सर पर बाँध कफ़न वो चल दिए,
हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये !
हमने दी न एक रत्ती,
वो तो जीवन दे गए,
जी सकें हम सर उठा कर,
काम ऐसा वो कर गए,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
२१ तोपों की सलामी से न होगा ये क़र्ज़ कम,
सर की बलि के साथ
रक्त के कतरों के संघ ये क़र्ज़ कम कीजिये,
भ्रष्टता और उग्रवाद को दफ़न कर,
माँ के उन सपूतों को याद कीजिये,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
यूँ कुछ तकल्लुफों की खातिर,
माजरे वतन का सौदा ना कीजिये,
सर उठा कर जी सके ये मुल्क, काम ऐसा कीजिये,
उन शहीदों की समाधी पर काम ये फूलों का कर जायेगा,
उन शहीदों के संघ हम सभी का नाम यूँ रह जायेगा,
मर मिटेंगे देश पर तो, कफ़न भी तिरंगी मिल पायेगा,
देशवाशियो के आँखों से आंशु फूल बन गिर जायेगा,
अमन में रह सके ये हिन्द, कुछ काम ऐसा कीजिये,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
देवता बस उनको समझ कर एक बार तो पुजिये!!






अमित~~

Wednesday, June 9, 2010

नाम!

नाम में क्या रख्खा है साथी,
कृष्ण कहो या उनको राम,
धर्म हो मेरा चाहे जो भी,
प्रभु के आगे बस कर्म प्रधान,
जैसा कर्म करोगे जग में,
वैसा फल देंगे भगवान,
हिन्दू, मुश्लिम, सिक्ख, इसाई,
उनके समक्ष सब एक समान,
जाती बनाये बस दो ही उसने,
नर-नारी! दृष्टि में उसके नहीं कोई प्रधान,
अन्तर किया नहीं जब उसने,
मैं-तुम अन्तर कर बनना चाहें क्यों भगवान?
नाम में क्या रख्खा है साथी,
अकबर कहो या उसको राम,
कोई कहता "अल्लाह-हु",
कोई कहता "हे भगवान"
धर्म हो मेरा चाहे जो भी,
प्रभु के आगे बस कर्म प्रधान,
नाम में क्या रख्खा है साथी,
कृष्ण, ईशु, अल्लाह या राम!!




अमित~~

Sunday, May 23, 2010

राष्ट्र भाषा

नमस्ते दोस्तों,

इस लेख का शीर्षक देख कर आपको इतना आभाश तो जरुर ही हो गया होगा की ये लेख भाषा के ऊपर लिखी जा रही है, लेकिन अब तक शायद आपने यह न सोचा होगा की ये लेख हिंदी भाषा के "दुर्भाग्य" पर लिखा गया है, जी हाँ, हिंदी भाषा के लिए फिलहाल "दुर्भाग्य" ही मुझे सबसे सटीक शब्द सूझ रही है, क्युकी जब कोई भाषा किसी देश की राष्ट्र भाषा कहलाये, और उसे बोलने वाले उसके देशवाशी ही उसकी दुर्गति करे तो इससे बड़े दुर्भाग्य की बात उस भाषा के लिए कोई और नहीं हो सकती!

आज हमारे देश की आज़ादी के जब लगभग ६३ साल पुरे हो चुके हैं, तब ऐसा लगता है जैसे की हिंदी भाषा के गुलामी के ६३वि वर्षगाँठ मनाई जा रही है, अंग्रेज तो हिन्दुस्तान को आज़ाद छोड़ कर चले गए, लेकिन अपने पीछे हिंदी भाषा को अंग्रेजी का गुलाम बना कर गए! कहने को तो हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन आज देश की ५०% जनता अपने दिनचर्या को संपन्न करने में अंग्रेजी का बखूबी इस्तेमाल करती है, हिंदी आये न आये, अंग्रेजी जरुर आती है, कल सुबह मेरे साथ एक दक्षिण भारतीय सज्जन खड़े थे, जब उन्होंने मुझसे बात करनी सुरु की, तब उनकी अंग्रेजी सुन कर मैं समझ गया की ये सज्जन दक्षिण भारतीय हैं, जनाब को अंग्रेजी तो बखूबी आती थी, लेकिन हिंदी में हाँ और ना के अलावा कुछ भी नहीं बोल पाते थे, ये कैसी व्यथा झेल रही है हिंदी?क्या अब यह कहना सही होगा? कि "हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा !" क्या अब ऐसा प्रतीत नहीं होता, कि हिंदी बस नाम मात्र को ही राष्ट्र भाषा के नाम से जानी जाती है?

आज बच्चे बोलना सीखते हैं तो माता पिता उन्हें पहले अंग्रेजी कि तालीम देना सुरु कर देते हैं, क, ख, ग, घ... आवे या ना आवे, अंग्रेजी कि पूरी वर्णमाला जरुर सिख जाते हैं, आज हमारे देश में अंग्रेजी बोलने को लोग शिक्षित होने की पहचान दे बैठे हैं, लोग यह भूल चुके हैं की अंग्रेजी भी हिंदी के ही तरह एक भाषा है, जिसका उपयोग बोल चाल के लिए अंग्रेजों के द्वारा किया जाता है! वो भूल चुके हैं की वो अंग्रेज नहीं हैं, और न ही वे अमेरिका या इंग्लैंड में रह रहे हैं, मैं पिछले ६ वर्षों से रूस में रह रहा हूँ, बखूबी अंग्रेजी और रुसी दोनों भाषा जनता हूँ, लेकिन मुझे आज तक एक भी ऐसा रुसी नहीं मिला, जिसने मुझसे बात चित की सुरुआत अंग्रेजी में की हो, जिन रूसियों को बखूबी अंग्रेजी बोलनी आती भी है, वो भी आपसे रुसी भाषा में ही बात करना ज्यादा पसंद करेंगे, और अगर आप अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हों, तो वो दुशरे ही पल आपसे कहेंगे, "कृपा कर रुसी भाषा में बात कीजिये, आप फिलहाल इंग्लैंड में नहीं, बल्कि रूस में हैं" मुझे यह सुन कर हर बार इसी बात की याद आई, की हिन्दुस्तान में किसी एक हिन्दुस्तानी ने आज तक किसी विदेशी से यह नहीं कहा होगा! क्या हमारी हिंदी भाषा अंग्रेजी या रुसी भाषा से कम धनि है? या फिर समय के साथ हम हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजी को हिंदी से ज्यादा धनि बना दिया है?

पिछले साल जब मैं गर्मी की छुट्टियों में घर गया था, तब की बात है, मेरे पिता जी दूकान में बैठे थे, एक ग्राहक आये, सामन का भाव पसंद न आने पर उन सज्जन ने मेरे पिता पर अंग्रेजी में बोलते हुए चिल्लाना सुरु कर दिया, जनाब रांची के अस.डी.ऍम थे, बड़े ही रौब से अंग्रेजी झाडे जा रहे थे, मेरे पिता को अंग्रेजी नहीं आती, वो बिचारे चुप रह गए, मैं वहीँ मौजूद था, यह देख कर मुझे बहुत गुस्सा आया, की एक व्यक्ति अंग्रेजी बोल कर मेरे पिता को चुप करा गया, उन महासय से मैंने अंग्रेजी में बात चालु की, और उनकी बोलती बंद करवाई, इसके पश्चात उन महासय ने अविलम्ब ही मुझसे पूछ लिया, "क्या करते हो बेटा? कहाँ पढाई करते हो?" मैंने उन्हें अपने बारे में बताया, और फिर उन्होंने बताया की वो रांची के "अस.डी.ऍम" हैं, बात तो ख़तम हो गई, लेकिन मेरे दूकान के आगे मेरे पड़ोशियों का जमावड़ा यह देखने के लिए लग गया की कौन इस ग्राहक को अंग्रेजी का अंग्रेजी से जवाब दे रहा है? बात यहीं ख़तम नहीं होती, रात को जब मेरे पिता जी घर पहुंचे, तो माँ से कहते हैं, देखो, आज अमित ने मेरा नाक ऊँचा कर दिया, उसने ग्राहक को अंग्रेजी का जवाब अंग्रेजी में दिया, सुमित (मेरा छोटा भाई) को तो अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ने का कोई फायदा ही नहीं हुआ, वो ऐसी अंग्रेजी नहीं बोल पाता! इस पुरे वाकिये ने मेरे मन में आज तक एक ही सवाल खड़ा किया है, लोग अंग्रेजी को इतना महान क्यूँ समझ रहे हैं? क्यूँ भूल जा रहे हैं वो, की अंग्रेजी केवल और केवल एक भाषा से ज्यादा कुछ भी नहीं, क्यूँ लोग अंग्रेजी बोलने को प्रतिष्ठा का विषय बना दे रहे हैं? आज स्कूल, कॉलेजों और कार्यालयों में दरख्वास तक अंग्रेजी में ही लिया जाने लगा है, कब तक हिंदी अपने ही देश में ये घुटन सहती रहेगी?

हिंदी की उपेक्ष केवल हमारे देश के नागरिक ही नहीं कर रहे, बल्कि नेता गन भी खुल कर कर रहे हैं, हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गाँधी जी के कार्यकाल में जब रुसी राष्ट्रपति हिन्दुस्तान दौरे पर आये थे, तब रुसी राष्ट्रपति ने अपना अभिभाषण रुसी भाषा में दिया, लेकिन वहीँ, हमारे प्रधान मंत्री राजीव जी ने अपना अभिभाषण यह भूलते हुए अंग्रेजी में पेश किया कि वो फिलहाल हिन्दुस्तान में हैं!

अब आप ही जरा सोचिये, हम अपनी भाषा को भूल कर उसके अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं या फिर अपने ही अस्तित्व को ख़तम कर रहे हैं? इस लेख को लिखने का मेरा एक ही उद्देश्य है, अगर इस लेख के जरिये मैं एक भी हिन्दुस्तानी के नज़र में अपनी हिंदी भाषा के प्रति थोडा भी झुकाव पैदा कर सका, तो मैं समझूंगा कि मेरा इस लेख को लिखना सफल हो गया, और हिंदी भाषा को भी पुनः खुद के अस्तित्व को खोने का डर नहीं सताएगा!

जय हिंद!






अमित~~

Sunday, May 16, 2010

पंख


एक पंख लगा दो मुझको माँ,


जो ऊँचे नभ में उड़ पाऊं मैं,


दूर जहाँ से आना चाहूँ,


बस तेरे पास पहुँच पाऊं मैं!




ना गिरने का डर होगा फिर मुझको,


बादल से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


जितना भी ऊँचा मैं चाहूँ,


माँ उतना ऊँचा उड़ जाऊं मैं!




एक पंख लगा दो मुझको माँ,


फिर खुले गगन में खुलकर,


चाँद सूरज से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


बस एक आज़ाद पंछी बन कर उड़ता ही चला जाऊं मैं!




थके ना कभी मेरे पर उड़ कर,


माँ बस इतना ही चाहूँ मैं,


पंख विशाल हो बस माँ इतना,


की तुम्हे भी साथ ले उड़ पाऊं मैं!




बस एक पंख लगा दो मुझको माँ,


अब उड़ना ही चाहूँ मैं,


थक चूका हूँ धरा पर बैठा,


आशमान की शैर कर आऊं मैं!




बस अब पंख लगा दो मुझको माँ, अब उड़ना ही चाहूँ मैं!!





अमित~~

Friday, May 14, 2010

कैसी विडम्बना !

यूँ तो पिछले ६ वर्षों में मैंने और मेरे दोस्तों ने रूस के हर मौषम का खूब आनंद लिया, लेकिन आज क्यूँ मुझे ऐसा लगने लगा की लोग आनंद उठाने से ज्यादा दिखावा करने में विश्वास रखते हैं? कल तक जब हम यहाँ के कड़ाके की शर्दियों में बहार घुमा करते थे, तब किसीने मुझसे यह नहीं कहा था, की "भारत की अपेक्षा यहाँ काफी ज्यादा ठण्ड है, हम यहाँ कैसे जी पाएंगे?" तो फिर आज अचानक सबको क्या हो गया? क्या एकाएक सबको दिखावे का सौख चढ़ गया, या फिर मेरे देखने और सोंचने का नजरिया बदल गया? कल तक यहाँ के -३०' तापमान में, जब की मनुष्य की हड्डियाँ तक ठण्ड से जमने लगती हैं, तब किसीको भारत और रूस के तापमान और रहन-सहन की तुलना करने की नहीं सूझी थी, लेकिन आज अचानक सबको क्या हो गया है, जो सभी एक एक कर यह कहते हैं कि "अब हम भारत जा रहे हैं, अब वहां कैसे रह पाएंगे?" मुझे न जाने क्यूँ, उनका ये सवाल बड़ा उटपटांग सा लगता है!

८ मई के दिन जब यहाँ का पारा चढ़ कर +३२' पर पहुँच गया तब सभी के मुह से एक ही बात निकल रही थी, कि, "बहुत ज्यादा गर्मी है, भारत में तो और भी ज्यादा गर्मी पड़ रही है, हम एक महीने बाद जब भारत जायेंगे, तब वहां कैसे रह पाएंगे?" क्या सब यह भूल गए हैं, कि हम भारत की मिटटी में ही जन्मे हैं, और अपने जन्म से अब तक के जीवन का ८५% समय हमने भारत में ही गुजरा है? या तो फिर मैं ही एक नया आर्टिकल लिखने के लिए इस बात को बेवजह तूल दे रहा हूँ? मैंने बहुत सोंचने की कोशिश की, लेकिन मुझे यह नहीं समझ आ रहा है, की यह कैसी विडम्बना है लोगों की, जो की आपने खुदके परिवेश से कुछ क्षणों के लिए बाहर आने मात्र से, उसे भूलने और झुठलाने की कोशिश करने लगते हैं? क्या बचपन से किशोरा अवस्था और जवानी की सुरुआत तक हमने भारत में पड़ने वाली गर्मी को नहीं झेला है? क्या घर पर बिजली चले जाने पर हम गर्मी के दिनों में भी बिना पंखे के नहीं रहे हैं? क्या इन बातों को कोई भी भारतीय नकार सकता है? तो फिर आज मेरे दोस्तों को क्या हो गया है? वो ऐसा क्यूँ सोचने लगे हैं की अब वो भारत की गर्मी भरे दिनों में कैसे रहेंगे? या फिर उनके यहाँ के गुजारे हुए महज़ ६० महीने, उनके भारत में गुजरे हुए औसतन २२० महीनों पर भारी पड़ गए हैं?

जब इस विषय पर मैंने उनसे पूछा, की गर्मी तो उन्हें बचपन में भी लगती थी, तब तो कभी ऐसा नहीं सोंचा उन्होंने? तो अब क्यूँ? तो कुछ ने कहा, "अब ठन्डे प्रदेश में रहने की आदत हो गई है" , कुछ का कहना था, "तब हम बच्चे थे, तो सब चल जाता था, अब नहीं सह पाएंगे वहा की गर्मी को" कुछ ने तो घर पहुँचते ही अपने कमरे में एयर कन्दिस्नर तक लगवाने कि बात कर डाली ! मुझे थोड़ी हसी आई, मैं सोंच में पड़ गया, कि जिस गर्मी में रहने की आदत २० सालों से थी, वो आदत महज़ ६० महीने मे बिलकुल बदल गई, तो ६० महीने में लगी आदत को तो महज़ २-३ महीने में ही बदल जाना चाहिए! ख़ैर, जो भी हो, अब भगवन से यही दुआ है, की उनकी आदत जल्द ही बदल जाए, वरना हमारी जन्मभूमि का कलेजा यह सोच कर अन्दर ही अन्दर बड़ा कचोटेगा की उसके बच्चे उसे उसके परिवेश को इतनी जल्दी भूल गए!

लोग कहते हैं की बदलाव ही प्रकृति का नियम है, लेकिन मैं यह समझता हूँ की अगर इसे लोग बदलाव का नाम देते हैं तो यह सरासर गलत है, इसे बदलाव नहीं, बल्कि अपनी असलियत से भागने का नाम देना चाहिए! बहुत से सज्जन मेरे इस अर्टिकल से सहमति नहीं रखते होंगे, तो उनसे मैं पहले ही क्षमा मांग लेना चाहूँगा, और प्रभु से यही प्रार्थना करूँगा की, अपनी जन्मभूमि और उसके परिवेश को भूल कर झूठा दिखावा करने की मति वो किसीको ना दे! धन्यवाद!




अमित~~

Friday, May 7, 2010

नारी तेरे रूप

जननी तू, जन्मभूमि तू,
तू ही है अर्धांगिनी !
सुता, अजा और शक्ति तू,
तू ही कहलाती बामांगिनी!

माता के नव रूपों में तू,
है सीता तू, शावित्री तू!
शिव की आधी शक्ति तू,
पीड़ा सह जग को जीवन देती तू!

मीरा बन भक्ति के पाठ सिखाती,
काली बन जग के प्राण बचाती!
है अबला तू, सबला भी तू,
लक्ष्मी भी तू, तुलसी भी तू!

विद्या के रूपों में है तू,
है श्रृष्टि तू, धरती भी तू!
है जीवन तू और मृत्यु तू,
गंगा भी तू, ममता भी तू!

जग पर क़र्ज़ बड़े हैं तेरे,
तेरे समक्ष शीश झुके हैं मेरे!
नारी, कोटि-कोटि नमन है तुझको,
माँ तू ही है जीवन दाईनि!





अमित~~

Thursday, May 6, 2010

मिथ्यांचल

नमस्ते दोस्तों,



मिथ्यांचल शीर्षक देख कर आपने शायद यह सोचा होगा कि मुझसे जरुर टाइपिंग में कोई गलती हुई है, लेकिन आपको जान कर शायद थोडा अजीब लगेगा कि यहाँ मुझसे टाइपिंग में कोई गलती नहीं हुई है, बल्कि जान बुझ कर मैंने शीर्षक "मिथ्यांचल" रखा है!



इस शीर्षक को चुनते वक़्त मेरे मन में बस एक ही तथ्य उभर रहा था, कि जिस तरह मैथिलि भाषा बोलने वाले लोगों के भूमि को "मिथलांचल" कहा गया, उसी तरह मिथ्या वचन का बड़ी सरलता से उपयोग करने वाले लोगों की भूमि (धरती) का नाम मुझे "मिथ्यांचल" से ज्यादा सटीक कुछ नहीं लगा!



आज गुस्से में आ कर अपना भडाश निकाल रहा हूँ और धरती को मिथ्यांचल नाम दे राह हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं, कि मैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का अवतार हूँ, मेरे मन में भी उतनी ही मिथ्या और कलेश छुपी हुई है, जितना कि किसी और मनुष्य के मन में होगा, हो सकता है की यह सब मुझमे कुछ ज्यादा ही हो!



अब आप यह सोंच रहे होंगे, कि आज ये अचानक मुझे क्या हो गया? जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा हूँ मैं, तो बस इतना ही कहूँगा कि, यूँ तो मेरी सहनशीलता की परीक्षा रोज ही होती थी, किन्तु आज मेरे सहनशीलता का बाँध बुरी तरह टूट गया, और भडाश निकालने के लिए लिखने बैठ गया मैं!



आज जहाँ देखिये वहां झूठ का ही पुलिंदा नज़र आएगा आपको, दफ्तर में बॉस की झूठी तारीफ़ करो तो तरक्की, न करो तो तबादला! क्लास में देर से पहुचो, झूठा बहाना बनाओ तो एंट्री , सच कह दो की नींद नहीं खुली, तो क्लास से बहार! बैंक में सच बात बता कर लोन मांगो तो लोन नहीं मिलेगा, झूठ कह कर और घुश दे कर लोन मांगो तो तुरंत मिल जायेगा! बीबी को सच बोलो तो शक करेगी, झूठ बोलो तो मान जाएगी! अब तो भिखारी भी झूठ बोल कर ही भीख मांगते हैं! और तो और, ट्रेन में बिना टिकेट यात्रा करने वाले लोग ज्यादा शान से चलने लगे हैं, साथ ही ट्रेन में मौजूद टी.टी को मामा कह कर संबोधित करने लगे हैं, कहें भी क्यूँ ना? ये मामा ५० रु की टिकेट के बदले २० रु ही ले कर छोड़ जो देता है! राजनेता से लेकर अपने दोस्त और रिश्तेदारों तक की हशी में भी एक झूठ दबा हुआ साफ़ नज़र आ जायेगा आपको, हशी तो हशी, अंशु तक झूठे हो गए हैं! और हाँ, अगर आप किसी दोस्त या परिजन के मुश्किल और मुशीबत भरे हालत में उसकी मदद करने का सोंच रहे हैं, तो यह कार्य भूल से भी न करें, वरना अंत में यह अवश्य सुनने को मिलेगा की "तुमने तो मेरी मदद स्वार्थ वस् की थी"! कुछ तो यह कहने से भी नहीं चुकेंगे की "तुम सब एक जैसे हो, डबल क्रोस करते हो", उनमे से भी थोड़े एक तो सबके गुरु साबित होंगे, क्यूंकि आप उन्हें जिस खड्डे में गिरने से बचा रहे होंगे, वो आपको ही उस खड्डे में धकेल कर, और आपके सर पर ही पाँव रख कर उस खड्डे को पार कर जायेंगे!



अब आप ही बताइए, क्या ऐसी परिस्थितियों में धरती को "मिथ्यांचल" कहना गलत होगा? क्या मैं और आप उपरोक्त बातों से इनकार करने का बुता रखते हैं? हो सकता है की कुछ लोग मेरे इस अर्टिकल से इत्तिफाक या सहमति न रखते हों, तो उनसे ये "मिथ्यांचल वाशी" पहले ही क्षमा मांग लेना चाहेगा! धन्यवाद!







अमित~~

Monday, April 19, 2010

धर्म

पिछले १ महीने से मैं कई बार सोंच चूका हूँ, लेकिन समय की कमी और काम में व्यस्तता से उभर कर इस आर्टिकल को लिखने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था, अंततः आज मुझे वह समुचित समय मिल ही गया जब मैं इस आर्टिकल को लिख सक रहा हूँ!

आज जब भारत आज़ाद है, और इस आज़ाद भारत में १.२ अरब जितने लोग रहते हैं, तब लोगों को जितनी रोजी रोटी और घर, परिवार की नहीं पड़ी, उससे ज्यादा वे धर्म और जाती के पीछे भाग रहे हैं, किसीको मंदिर चाहिए, तो किसीको मस्जिद, किसीको गुरुद्वारा चाहिए, तो किसीको गिरिजा-घर! देश में हर रोज करीब २७० नवजात शिशु सड़कों, कचरे के डब्बों और नालियों के किनारे फेके हुए पाए जाते हैं, कोई उन्हें घर दिलवाने का नहीं सोच सकता, लेकिन धर्म को मजबूत कैसे करें, ये सोचने का समय हर किसीके पास है, इस संख्या को कम कैसे किया जाए, इसपर कोई ध्यान नहीं देता, लेकिन धार्मिक दंगों को अंजाम दे कर और भी हज़ारों नवजात शिशुओं को बेघर और अनाथ बनाने का जोखिम हर कोई उठाने को तैयार दीखता है, जिसे देखो अपनी रट लगाये बैठा है, "मैं हिन्दू हूँ", "मैं मुसलमान हूँ", "मैं सिक्ख हूँ" और "मैं इसाई हूँ" कोई माइनोरिटी कहलाता है तो कोई मजोरिटी कहलाता है, किसीको किसीके नवाज़ से परेशानी है, तो किसीको किसीके मन्त्रों से नफरत, इन्ही बातों में उलझे पड़े हैं सभी, और तो और, इतना ही जैसे कम था, अब फॉरवर्ड-बक्वोर्ड और पिछड़ी जाती एवं जनजाति के नाम की एक नयी लड़ाई सुरु कर दी सबने, कोई जाट है तो उसे आरक्षण चाहिए और कोई खुद को दलित कह कर सत्ता पर काबिज़ हो बैठा है, खुद के बनाये इस धर्म और जाती रूपी दलदल में लोग खुद ही इस कदर फंस और उलझ चुके हैं, की किसी को यह नहीं दिख रहा की वो इन सब के चक्कर में अपना असली धर्म पुर्णतः भूल चुके है! "असली धर्म" जिसमे न तो कोई हिन्दू है, और न कोई मुसलमान, न कोई सिक्ख और न ही इसाई, उस धर्म को "मानवता" का नाम दिया गया है, जहाँ केवल और केवल प्यार ही प्यार भरा हुआ है, लेकिन अफ़सोस तो इस बात की है, कि आज किसीको यह धर्म दिख नहीं रहा, हर व्यक्ति एक दुसरे के खून का प्याशा है!

इस विषय पर मैंने कुछ सज्जनों की राय जाननी चाहि, जान कर बड़ी ही हैरानी हुई, क्यूंकि उनमे से सभी का झुकाव अपने अपने धर्म के प्रति था, कुछ तो इतने कट्टर थे की अगर उन्हें आधी रात को भी उनके धर्म के ओर से लड़ने को कहा जाए, तो वो बिना कुछ कहे बड़ी सहजता से किसीकी भी जान ले लेने को तैयार दिखेंगे, लेकिन उनमे से एक भी ऐसा नहीं दिखा, जो मानवता रूपी धर्म के प्रति थोड़ी भी श्रद्धा रखता हो, कोई कह रहा था, "दिनों दिन मुसलामानों की संख्या हमारे देश में बढती जा रही है" कोई कह रहा था की " दिनों दिन हम हिन्दुओं को दबाया जा रहा है" तो कोई कहता था की "लोगों को रोटी, कपडा ओर माकन दे कर उनका धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है, उन्हें इसाई बनाया जा रहा है" लेकिन किसीने यह नहीं कहा, की "हर बार धार्मिक दंगों में हजारों माओं की कोख उजड़ जाती है, हज़ारों औरतों का सुहाग छीन जाता है और लगभग उतने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं", कहीं कोई मंदिर गिराना चाहता है, तो कोई मस्जिद गिराना चाहता है, लेकिन कोई एक बेघर का घर बसाने की बात नहीं करता, धर्म के नाम पर औरतों को विधवा बनाने वाले लोग कभी किसी गरीब की बेटी का व्याह करवाने का नहीं सोचते!

कल का तो पता नहीं, कल किसने देखा है, लेकिन आज मुझे यह सोंच कर खुद पर बहुत शर्म आ रही है की मैं भी उन्ही धर्मों में से एक धर्म का हिस्सा हूँ, और मेरा धर्म भी हज़ारों बेगुनाहों की ज़िन्दगी छिनने का एक बहुत ही बड़ा कारक है, क्या मतलब बनता है भारत की ऐसी आज़ादी का? और क्या मतलब बनता है ऐसे धर्म का, जिसके वजह से इतने बेकसूर बेवजह मारे जा रहे हैं, कोई जेहाद चला रहा है तो कोई शिव, हनुमान और राम के नाम की शेना बना रहा है, कोई किसीका धर्म परिवर्तन करवा रहा है तो कोई मंदिरों और गुरुद्वारों पर सोने जाडवा रहा है! आज सुच मच ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मानवता मर चुकी है, अब कोई मानवता नमक धर्म हमारे इस संसार में बचा ही नहीं है, अब तो शायद धरती भी खुद पर रो देगी और खुद ही प्रकृति से प्रलय का श्राप मांग लेगी, की उसने कैसे मानवों का बोझ उठा रक्खा है, जिनमे जरा भी मानवत बची ही नहीं है!

पिछले कुछ सप्ताहों में मैंने काफी सारे लोगों के ब्लोग्स को पढ़ा और उनके विचारों को जाना, काफी कुछ सिखने को मिला, लेकिन जिसकी मै तलाश कर रहा था, वो अब तक नहीं मिल पाया था कहीं, शायद मेरी तलाश में ही कोई कमी या त्रुटी रही होगी, अब आज मैं खुद ही अकेला धर्म के इस तांडव को लिख रहा हूँ, अगर मेरे इस आर्टिकल से एक भी व्यक्ति को मैं मानवता के राह पर एक कदम भी आगे बाढा सका, तो मैं समझूंगा की मेरा लिखना सफल हो गया, आशा है आप सब का साथ टिप्पणियों के रूप में जरुर मिलेगा!







अमित~~

Friday, April 16, 2010

माँ अब मैं क्या करूँ?

रातें तो हमेशा काली थीं,
अब दिन भी मेरा अंधेरा हैं,
कबसे आश लगा बैठा हूँ,
नहीं दीखता कहीं सबेरा है,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


पता नहीं इस पगडण्डी पर,
कितने ठोकर और पड़ेंगे,
आगे बढते हुए पाँव में,
कितने कांटें और चुभेंगे,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


जीवन के इस पगडण्डी पर,
खो बैठा हूँ शायद खुदको,
कदम बढाता हूँ आगे जब,
राह चुभते बन कंकड़-पत्थर,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


आंशु रोक रखे हैं मैंने,
पर दिल की धड़कन तेज है,
थक चुका हूँ मैं अब अकेला,
धुन्ड़ता हुआ बस एक सवेरा,
अगर मिला ना वो अब भी मुझको !

तो तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?



अमित~~

Monday, April 5, 2010

अधुरा बचपन

कल अचानक किसी सज्जन के ब्लॉग की लिंक मिली, और ब्लॉग पर पहुँच कर पता चला की उन सज्जन को तो मै कई वर्षों से जनता हूँ, काफी समय से उनसे कोई संपर्क नहीं हो पाया है, इसी वजह से शायद उनके ब्लॉग के सम्बन्ध में मुझे कोई जानकारी नहीं थी, खैर, उनके ब्लॉग में एक बड़ा ही अच्छा आर्टिकल देखा, आर्टिकल दादी और पोते के रिश्ते पर आधारित था, आर्टिकल का हर हिस्सा यही कहता था की एक दादी अपने पोते से कितना प्यार करती है, किस तरह पोते अपनी दादी से रातों में कहानियां सुनते हुए सोया करते हैं, और किस तरह दादी उसके पोते के खिलाफ एक भी बुरी बात सह नहीं सकती!

इस आर्टिकल को पढ़ते वक़्त मन में एक अजीब से जलन की भाव आ रही थी, खुद के अभागेपन पर तो गुस्सा आ ही रहा था, साथ ही अपने दादी, दादा, नाना और नानी पर भी गुस्सा आ रहा था, मेरे इस गुस्से का कारण भी शायद सही था, क्युकी बचपन से जिसने दादा, दादी, नाना या नानी का प्यार क्षण भर के लिए भी न पाया हो, उसे दूसरों के मुह से दादी, दादा, नानी और नाना के प्यार और किस्से कहानियों की बातें सुन कर शायद ऐसा ही महसूस होगा! आज तक हॉस्टल में भी जब मेरे दोस्त मुझे अपने दादा या दादी के लाड प्यार की बातें बताते थे, तब भी मुझे ऐसा ही महसूस होता था, लेकिन आज जलन इतनी बढ गई की हाथ लिखने तक को उठ पड़े!

मेरी नानी को तो मै कोई दोष न ही दूँ तो बेहतर होगा, क्यूंकि वो बिचारी तो तब ही भगवन को प्यारी हो गई थी , जब मेरी माँ केवल १२ वर्ष की थी, तब तो इस दुनिया में मेरा नामो-निशाँ तक नहीं था, लेकिन जब बात दादी, दादा, और नाना पर आ कर रूकती है, तब मेरे मन में ढेरो सवाल उठने लगते हैं, मनन पूछने लगता है की आखिर हम दोनों भाइयों का कुशुर क्या था? यही की हमसे पहले हमारे दादा और दादी के ९ पोते और ५ पोतियाँ हो चुके थे, इसी लिए उनके मन में हमारे प्रति कोई लगाव ही नहीं बचा था, बचपन में हमारे सामने हमारे ही दादा दादी अपने दुसरे पोते पोतियों को मेले घुमाने ले जाते थे, लेकिन कभी हमसे उन्होंने पुचा तक नहीं, की क्या हम भी उनके साथ घुमने आना चाहते है? जब हमारे चचेरे भाई बहिन मेले से वापिस आते, तो उनके पास मेले से ख़रीदे हुए खिलोने होते, वे लोग हमें उन खिलोनो को दिखा कर खुद में इतराते, लेकिन हम बिचारे दोनों भाई मन ही मन ये सोच कर रह जाते, की उनके पास मिटटी के खिलोने है तो क्या हुआ, हमारे पास उनसे अच्छे खिलोने है, जो की बैट्री से चलते है, लेकिन मन में ये मलाल जरुर रह जाता था, की हमें दादा दादी ने कुछ नहीं दिलवाया, हमारे शहर में एक बड़ा ही फेमस २ दिनों का मेला लगता है, जिसे लोग "तपो वन" के मेले के नाम से जानते है, इस मेले में आपको ज्यादातर बच्चे अपने दादा दादी के साथ ही दिखेंगे, लेकिन आपको जान कर बड़ा आश्चर्य होगा, की मैंने आज तक वो मेला नहीं देखा है! और कारण बस इतनी सी थी, की पापा तो काम में हमेशा व्यस्त रहे और माँ रीती रिवाजो से बंधे रहने के कारण घर से अकेली बहार नहीं जा सकती थी, और हमारे प्रिय दादा दादी के लिए तो हम शायद इस दुनिया में रहते ही नहीं थे! दादा दादी की एक और भी खासियत थी, कही भी जाये, कभी भी जाये, अपने नाती नातनियों के लिए खिलोने खरीदना नहीं भूलते थे, लेकिन हम दोनों पोते ही शायद उनके आँखों में चुभते थे, कभी उनके मन में तनिक ख्याल तक नहीं आता की हमें भी थोडा प्यार दे दें , लेकिन हाँ, दादी को अपने बेटे (मेरे पिता) पर बड़ा प्यार आता था, क्यूंकि खुद के खर्चे के लिए बेटे से पैसे जो मिलते थे, हसी आती है जब इस विषय पर सोचता हूँ तो, की किस कदर लोग अपने स्वार्थ वस् कही भी झुक जाते हैं, और स्वार्थ पूरा होते ही गिरगिट के तरह रंग बदल लेते हैं!

अब बात आती है हमारे श्री श्री १०८ नाना जी की, इनका भी कुछ ऐसा ही हाल था, हमसे २०-२० साल बड़े मौसेरे भाइयों को तो नाना जी का खूब प्यार मिला, लेकिन हम २ भाई ही शायद करमजले पैदा हुए थे, हमारे पैदा होने से पहले ही नाना जी के ४ पोते भी पैदा हो चुके थे, अब नाना जी को अपने पोतो के अलावा दुनिया कही नज़र ही नहीं आती थी शायद, उनका सोचना था की उनकी जिम्मेदारी केवल उनके पोतों के प्रति ही है, नातियो के प्रति अब उनकी कोई जम्मेदारी नहीं, और इस बात का खामियाजा भुगतने के लिए भी बस हम २ भाई ही बच गए थे! दादा दादी के लाड प्यार और किस्से कहानियों से तो वंचित रह ही गए थे हम, अब नाना ने भी नकार दिया!

कभी कभी सोंचता हूँ की अजीब खेल है किस्मत का भी, जिसने हमें कभी ये जान्ने तक का मौका नहीं दिया की दादा दादी और नाना नानी किस तरह किस्से और कहानियां सुनते हैं, किस तरह दादी को पोते से प्यार और लगाव होता है, लोग कहते है की दादी वो जादूगर होती है, जिसके प्राण उसके पोते रूपी तोते के अन्दर होता है, लेकिन किस्मत का खेल देखिये, हमें तो कभी ऐसा तोता बन्ने का मौका ही नहीं मिला, दादी को उसका कुरूप पोता भी सुन्दर दीखता है, लेकिन, लेकिन यहाँ तो हमें यही पता चल पाया, की "दादी को पोता दीखता ही नहीं है", हमारे लिए तो हमारे माता पिता ही हमारे दादा दादी और हमारे माता पिता ही हमारे नाना नानी थे, जो भी प्यार मिला, बस उनसे ही मिला, खिलौने भी उन्होंने ही दिलाया और कहानियां भी उन्होंने ही सुनाई!

कितना अजीब लगता है, लोग इन छोटी छोटी बातों का ख़याल नहीं रखते, लेकिन शायद ये भूल जाते हैं की ये छोटी बातें किसी के लिए बहुत मायने रखती हैं, और ये ही बातें जब बुजुर्ग नज़र अंदाज़ कर जाते है, तो बच्चों के मन में ये बात इस कदर घर कर जाती हैं की विष का एक ज्वालामुखी बना देती हैं, बच्चे अपनी पूरी जिंदगी इन बातों को जब जब याद करते हैं तब तब उनके मनन की ये ज्वालामुखी फट पड़ती है, और वो खुद को ही अभागा समझ कर सांत हो जाते हैं, मैंने आज ये बात अपने इस ब्लॉग में इस लिया रखना उचित समझा, ताकि मेरे ही जैसे किसी एक भी बच्चे के बुजुर्ग अगर इस कहानी को पढ़ कर या सुन कर उन्हें थोडा भी लाड प्यार दे दें, तो मै समझूंगा की मेरे इस आपबीती को लिखने का उद्देश्य सफल रहा!





अमित~~