Sunday, May 23, 2010

राष्ट्र भाषा

नमस्ते दोस्तों,

इस लेख का शीर्षक देख कर आपको इतना आभाश तो जरुर ही हो गया होगा की ये लेख भाषा के ऊपर लिखी जा रही है, लेकिन अब तक शायद आपने यह न सोचा होगा की ये लेख हिंदी भाषा के "दुर्भाग्य" पर लिखा गया है, जी हाँ, हिंदी भाषा के लिए फिलहाल "दुर्भाग्य" ही मुझे सबसे सटीक शब्द सूझ रही है, क्युकी जब कोई भाषा किसी देश की राष्ट्र भाषा कहलाये, और उसे बोलने वाले उसके देशवाशी ही उसकी दुर्गति करे तो इससे बड़े दुर्भाग्य की बात उस भाषा के लिए कोई और नहीं हो सकती!

आज हमारे देश की आज़ादी के जब लगभग ६३ साल पुरे हो चुके हैं, तब ऐसा लगता है जैसे की हिंदी भाषा के गुलामी के ६३वि वर्षगाँठ मनाई जा रही है, अंग्रेज तो हिन्दुस्तान को आज़ाद छोड़ कर चले गए, लेकिन अपने पीछे हिंदी भाषा को अंग्रेजी का गुलाम बना कर गए! कहने को तो हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन आज देश की ५०% जनता अपने दिनचर्या को संपन्न करने में अंग्रेजी का बखूबी इस्तेमाल करती है, हिंदी आये न आये, अंग्रेजी जरुर आती है, कल सुबह मेरे साथ एक दक्षिण भारतीय सज्जन खड़े थे, जब उन्होंने मुझसे बात करनी सुरु की, तब उनकी अंग्रेजी सुन कर मैं समझ गया की ये सज्जन दक्षिण भारतीय हैं, जनाब को अंग्रेजी तो बखूबी आती थी, लेकिन हिंदी में हाँ और ना के अलावा कुछ भी नहीं बोल पाते थे, ये कैसी व्यथा झेल रही है हिंदी?क्या अब यह कहना सही होगा? कि "हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा !" क्या अब ऐसा प्रतीत नहीं होता, कि हिंदी बस नाम मात्र को ही राष्ट्र भाषा के नाम से जानी जाती है?

आज बच्चे बोलना सीखते हैं तो माता पिता उन्हें पहले अंग्रेजी कि तालीम देना सुरु कर देते हैं, क, ख, ग, घ... आवे या ना आवे, अंग्रेजी कि पूरी वर्णमाला जरुर सिख जाते हैं, आज हमारे देश में अंग्रेजी बोलने को लोग शिक्षित होने की पहचान दे बैठे हैं, लोग यह भूल चुके हैं की अंग्रेजी भी हिंदी के ही तरह एक भाषा है, जिसका उपयोग बोल चाल के लिए अंग्रेजों के द्वारा किया जाता है! वो भूल चुके हैं की वो अंग्रेज नहीं हैं, और न ही वे अमेरिका या इंग्लैंड में रह रहे हैं, मैं पिछले ६ वर्षों से रूस में रह रहा हूँ, बखूबी अंग्रेजी और रुसी दोनों भाषा जनता हूँ, लेकिन मुझे आज तक एक भी ऐसा रुसी नहीं मिला, जिसने मुझसे बात चित की सुरुआत अंग्रेजी में की हो, जिन रूसियों को बखूबी अंग्रेजी बोलनी आती भी है, वो भी आपसे रुसी भाषा में ही बात करना ज्यादा पसंद करेंगे, और अगर आप अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हों, तो वो दुशरे ही पल आपसे कहेंगे, "कृपा कर रुसी भाषा में बात कीजिये, आप फिलहाल इंग्लैंड में नहीं, बल्कि रूस में हैं" मुझे यह सुन कर हर बार इसी बात की याद आई, की हिन्दुस्तान में किसी एक हिन्दुस्तानी ने आज तक किसी विदेशी से यह नहीं कहा होगा! क्या हमारी हिंदी भाषा अंग्रेजी या रुसी भाषा से कम धनि है? या फिर समय के साथ हम हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजी को हिंदी से ज्यादा धनि बना दिया है?

पिछले साल जब मैं गर्मी की छुट्टियों में घर गया था, तब की बात है, मेरे पिता जी दूकान में बैठे थे, एक ग्राहक आये, सामन का भाव पसंद न आने पर उन सज्जन ने मेरे पिता पर अंग्रेजी में बोलते हुए चिल्लाना सुरु कर दिया, जनाब रांची के अस.डी.ऍम थे, बड़े ही रौब से अंग्रेजी झाडे जा रहे थे, मेरे पिता को अंग्रेजी नहीं आती, वो बिचारे चुप रह गए, मैं वहीँ मौजूद था, यह देख कर मुझे बहुत गुस्सा आया, की एक व्यक्ति अंग्रेजी बोल कर मेरे पिता को चुप करा गया, उन महासय से मैंने अंग्रेजी में बात चालु की, और उनकी बोलती बंद करवाई, इसके पश्चात उन महासय ने अविलम्ब ही मुझसे पूछ लिया, "क्या करते हो बेटा? कहाँ पढाई करते हो?" मैंने उन्हें अपने बारे में बताया, और फिर उन्होंने बताया की वो रांची के "अस.डी.ऍम" हैं, बात तो ख़तम हो गई, लेकिन मेरे दूकान के आगे मेरे पड़ोशियों का जमावड़ा यह देखने के लिए लग गया की कौन इस ग्राहक को अंग्रेजी का अंग्रेजी से जवाब दे रहा है? बात यहीं ख़तम नहीं होती, रात को जब मेरे पिता जी घर पहुंचे, तो माँ से कहते हैं, देखो, आज अमित ने मेरा नाक ऊँचा कर दिया, उसने ग्राहक को अंग्रेजी का जवाब अंग्रेजी में दिया, सुमित (मेरा छोटा भाई) को तो अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ने का कोई फायदा ही नहीं हुआ, वो ऐसी अंग्रेजी नहीं बोल पाता! इस पुरे वाकिये ने मेरे मन में आज तक एक ही सवाल खड़ा किया है, लोग अंग्रेजी को इतना महान क्यूँ समझ रहे हैं? क्यूँ भूल जा रहे हैं वो, की अंग्रेजी केवल और केवल एक भाषा से ज्यादा कुछ भी नहीं, क्यूँ लोग अंग्रेजी बोलने को प्रतिष्ठा का विषय बना दे रहे हैं? आज स्कूल, कॉलेजों और कार्यालयों में दरख्वास तक अंग्रेजी में ही लिया जाने लगा है, कब तक हिंदी अपने ही देश में ये घुटन सहती रहेगी?

हिंदी की उपेक्ष केवल हमारे देश के नागरिक ही नहीं कर रहे, बल्कि नेता गन भी खुल कर कर रहे हैं, हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गाँधी जी के कार्यकाल में जब रुसी राष्ट्रपति हिन्दुस्तान दौरे पर आये थे, तब रुसी राष्ट्रपति ने अपना अभिभाषण रुसी भाषा में दिया, लेकिन वहीँ, हमारे प्रधान मंत्री राजीव जी ने अपना अभिभाषण यह भूलते हुए अंग्रेजी में पेश किया कि वो फिलहाल हिन्दुस्तान में हैं!

अब आप ही जरा सोचिये, हम अपनी भाषा को भूल कर उसके अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं या फिर अपने ही अस्तित्व को ख़तम कर रहे हैं? इस लेख को लिखने का मेरा एक ही उद्देश्य है, अगर इस लेख के जरिये मैं एक भी हिन्दुस्तानी के नज़र में अपनी हिंदी भाषा के प्रति थोडा भी झुकाव पैदा कर सका, तो मैं समझूंगा कि मेरा इस लेख को लिखना सफल हो गया, और हिंदी भाषा को भी पुनः खुद के अस्तित्व को खोने का डर नहीं सताएगा!

जय हिंद!






अमित~~

Sunday, May 16, 2010

पंख


एक पंख लगा दो मुझको माँ,


जो ऊँचे नभ में उड़ पाऊं मैं,


दूर जहाँ से आना चाहूँ,


बस तेरे पास पहुँच पाऊं मैं!




ना गिरने का डर होगा फिर मुझको,


बादल से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


जितना भी ऊँचा मैं चाहूँ,


माँ उतना ऊँचा उड़ जाऊं मैं!




एक पंख लगा दो मुझको माँ,


फिर खुले गगन में खुलकर,


चाँद सूरज से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


बस एक आज़ाद पंछी बन कर उड़ता ही चला जाऊं मैं!




थके ना कभी मेरे पर उड़ कर,


माँ बस इतना ही चाहूँ मैं,


पंख विशाल हो बस माँ इतना,


की तुम्हे भी साथ ले उड़ पाऊं मैं!




बस एक पंख लगा दो मुझको माँ,


अब उड़ना ही चाहूँ मैं,


थक चूका हूँ धरा पर बैठा,


आशमान की शैर कर आऊं मैं!




बस अब पंख लगा दो मुझको माँ, अब उड़ना ही चाहूँ मैं!!





अमित~~

Friday, May 14, 2010

कैसी विडम्बना !

यूँ तो पिछले ६ वर्षों में मैंने और मेरे दोस्तों ने रूस के हर मौषम का खूब आनंद लिया, लेकिन आज क्यूँ मुझे ऐसा लगने लगा की लोग आनंद उठाने से ज्यादा दिखावा करने में विश्वास रखते हैं? कल तक जब हम यहाँ के कड़ाके की शर्दियों में बहार घुमा करते थे, तब किसीने मुझसे यह नहीं कहा था, की "भारत की अपेक्षा यहाँ काफी ज्यादा ठण्ड है, हम यहाँ कैसे जी पाएंगे?" तो फिर आज अचानक सबको क्या हो गया? क्या एकाएक सबको दिखावे का सौख चढ़ गया, या फिर मेरे देखने और सोंचने का नजरिया बदल गया? कल तक यहाँ के -३०' तापमान में, जब की मनुष्य की हड्डियाँ तक ठण्ड से जमने लगती हैं, तब किसीको भारत और रूस के तापमान और रहन-सहन की तुलना करने की नहीं सूझी थी, लेकिन आज अचानक सबको क्या हो गया है, जो सभी एक एक कर यह कहते हैं कि "अब हम भारत जा रहे हैं, अब वहां कैसे रह पाएंगे?" मुझे न जाने क्यूँ, उनका ये सवाल बड़ा उटपटांग सा लगता है!

८ मई के दिन जब यहाँ का पारा चढ़ कर +३२' पर पहुँच गया तब सभी के मुह से एक ही बात निकल रही थी, कि, "बहुत ज्यादा गर्मी है, भारत में तो और भी ज्यादा गर्मी पड़ रही है, हम एक महीने बाद जब भारत जायेंगे, तब वहां कैसे रह पाएंगे?" क्या सब यह भूल गए हैं, कि हम भारत की मिटटी में ही जन्मे हैं, और अपने जन्म से अब तक के जीवन का ८५% समय हमने भारत में ही गुजरा है? या तो फिर मैं ही एक नया आर्टिकल लिखने के लिए इस बात को बेवजह तूल दे रहा हूँ? मैंने बहुत सोंचने की कोशिश की, लेकिन मुझे यह नहीं समझ आ रहा है, की यह कैसी विडम्बना है लोगों की, जो की आपने खुदके परिवेश से कुछ क्षणों के लिए बाहर आने मात्र से, उसे भूलने और झुठलाने की कोशिश करने लगते हैं? क्या बचपन से किशोरा अवस्था और जवानी की सुरुआत तक हमने भारत में पड़ने वाली गर्मी को नहीं झेला है? क्या घर पर बिजली चले जाने पर हम गर्मी के दिनों में भी बिना पंखे के नहीं रहे हैं? क्या इन बातों को कोई भी भारतीय नकार सकता है? तो फिर आज मेरे दोस्तों को क्या हो गया है? वो ऐसा क्यूँ सोचने लगे हैं की अब वो भारत की गर्मी भरे दिनों में कैसे रहेंगे? या फिर उनके यहाँ के गुजारे हुए महज़ ६० महीने, उनके भारत में गुजरे हुए औसतन २२० महीनों पर भारी पड़ गए हैं?

जब इस विषय पर मैंने उनसे पूछा, की गर्मी तो उन्हें बचपन में भी लगती थी, तब तो कभी ऐसा नहीं सोंचा उन्होंने? तो अब क्यूँ? तो कुछ ने कहा, "अब ठन्डे प्रदेश में रहने की आदत हो गई है" , कुछ का कहना था, "तब हम बच्चे थे, तो सब चल जाता था, अब नहीं सह पाएंगे वहा की गर्मी को" कुछ ने तो घर पहुँचते ही अपने कमरे में एयर कन्दिस्नर तक लगवाने कि बात कर डाली ! मुझे थोड़ी हसी आई, मैं सोंच में पड़ गया, कि जिस गर्मी में रहने की आदत २० सालों से थी, वो आदत महज़ ६० महीने मे बिलकुल बदल गई, तो ६० महीने में लगी आदत को तो महज़ २-३ महीने में ही बदल जाना चाहिए! ख़ैर, जो भी हो, अब भगवन से यही दुआ है, की उनकी आदत जल्द ही बदल जाए, वरना हमारी जन्मभूमि का कलेजा यह सोच कर अन्दर ही अन्दर बड़ा कचोटेगा की उसके बच्चे उसे उसके परिवेश को इतनी जल्दी भूल गए!

लोग कहते हैं की बदलाव ही प्रकृति का नियम है, लेकिन मैं यह समझता हूँ की अगर इसे लोग बदलाव का नाम देते हैं तो यह सरासर गलत है, इसे बदलाव नहीं, बल्कि अपनी असलियत से भागने का नाम देना चाहिए! बहुत से सज्जन मेरे इस अर्टिकल से सहमति नहीं रखते होंगे, तो उनसे मैं पहले ही क्षमा मांग लेना चाहूँगा, और प्रभु से यही प्रार्थना करूँगा की, अपनी जन्मभूमि और उसके परिवेश को भूल कर झूठा दिखावा करने की मति वो किसीको ना दे! धन्यवाद!




अमित~~

Friday, May 7, 2010

नारी तेरे रूप

जननी तू, जन्मभूमि तू,
तू ही है अर्धांगिनी !
सुता, अजा और शक्ति तू,
तू ही कहलाती बामांगिनी!

माता के नव रूपों में तू,
है सीता तू, शावित्री तू!
शिव की आधी शक्ति तू,
पीड़ा सह जग को जीवन देती तू!

मीरा बन भक्ति के पाठ सिखाती,
काली बन जग के प्राण बचाती!
है अबला तू, सबला भी तू,
लक्ष्मी भी तू, तुलसी भी तू!

विद्या के रूपों में है तू,
है श्रृष्टि तू, धरती भी तू!
है जीवन तू और मृत्यु तू,
गंगा भी तू, ममता भी तू!

जग पर क़र्ज़ बड़े हैं तेरे,
तेरे समक्ष शीश झुके हैं मेरे!
नारी, कोटि-कोटि नमन है तुझको,
माँ तू ही है जीवन दाईनि!





अमित~~

Thursday, May 6, 2010

मिथ्यांचल

नमस्ते दोस्तों,



मिथ्यांचल शीर्षक देख कर आपने शायद यह सोचा होगा कि मुझसे जरुर टाइपिंग में कोई गलती हुई है, लेकिन आपको जान कर शायद थोडा अजीब लगेगा कि यहाँ मुझसे टाइपिंग में कोई गलती नहीं हुई है, बल्कि जान बुझ कर मैंने शीर्षक "मिथ्यांचल" रखा है!



इस शीर्षक को चुनते वक़्त मेरे मन में बस एक ही तथ्य उभर रहा था, कि जिस तरह मैथिलि भाषा बोलने वाले लोगों के भूमि को "मिथलांचल" कहा गया, उसी तरह मिथ्या वचन का बड़ी सरलता से उपयोग करने वाले लोगों की भूमि (धरती) का नाम मुझे "मिथ्यांचल" से ज्यादा सटीक कुछ नहीं लगा!



आज गुस्से में आ कर अपना भडाश निकाल रहा हूँ और धरती को मिथ्यांचल नाम दे राह हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं, कि मैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का अवतार हूँ, मेरे मन में भी उतनी ही मिथ्या और कलेश छुपी हुई है, जितना कि किसी और मनुष्य के मन में होगा, हो सकता है की यह सब मुझमे कुछ ज्यादा ही हो!



अब आप यह सोंच रहे होंगे, कि आज ये अचानक मुझे क्या हो गया? जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा हूँ मैं, तो बस इतना ही कहूँगा कि, यूँ तो मेरी सहनशीलता की परीक्षा रोज ही होती थी, किन्तु आज मेरे सहनशीलता का बाँध बुरी तरह टूट गया, और भडाश निकालने के लिए लिखने बैठ गया मैं!



आज जहाँ देखिये वहां झूठ का ही पुलिंदा नज़र आएगा आपको, दफ्तर में बॉस की झूठी तारीफ़ करो तो तरक्की, न करो तो तबादला! क्लास में देर से पहुचो, झूठा बहाना बनाओ तो एंट्री , सच कह दो की नींद नहीं खुली, तो क्लास से बहार! बैंक में सच बात बता कर लोन मांगो तो लोन नहीं मिलेगा, झूठ कह कर और घुश दे कर लोन मांगो तो तुरंत मिल जायेगा! बीबी को सच बोलो तो शक करेगी, झूठ बोलो तो मान जाएगी! अब तो भिखारी भी झूठ बोल कर ही भीख मांगते हैं! और तो और, ट्रेन में बिना टिकेट यात्रा करने वाले लोग ज्यादा शान से चलने लगे हैं, साथ ही ट्रेन में मौजूद टी.टी को मामा कह कर संबोधित करने लगे हैं, कहें भी क्यूँ ना? ये मामा ५० रु की टिकेट के बदले २० रु ही ले कर छोड़ जो देता है! राजनेता से लेकर अपने दोस्त और रिश्तेदारों तक की हशी में भी एक झूठ दबा हुआ साफ़ नज़र आ जायेगा आपको, हशी तो हशी, अंशु तक झूठे हो गए हैं! और हाँ, अगर आप किसी दोस्त या परिजन के मुश्किल और मुशीबत भरे हालत में उसकी मदद करने का सोंच रहे हैं, तो यह कार्य भूल से भी न करें, वरना अंत में यह अवश्य सुनने को मिलेगा की "तुमने तो मेरी मदद स्वार्थ वस् की थी"! कुछ तो यह कहने से भी नहीं चुकेंगे की "तुम सब एक जैसे हो, डबल क्रोस करते हो", उनमे से भी थोड़े एक तो सबके गुरु साबित होंगे, क्यूंकि आप उन्हें जिस खड्डे में गिरने से बचा रहे होंगे, वो आपको ही उस खड्डे में धकेल कर, और आपके सर पर ही पाँव रख कर उस खड्डे को पार कर जायेंगे!



अब आप ही बताइए, क्या ऐसी परिस्थितियों में धरती को "मिथ्यांचल" कहना गलत होगा? क्या मैं और आप उपरोक्त बातों से इनकार करने का बुता रखते हैं? हो सकता है की कुछ लोग मेरे इस अर्टिकल से इत्तिफाक या सहमति न रखते हों, तो उनसे ये "मिथ्यांचल वाशी" पहले ही क्षमा मांग लेना चाहेगा! धन्यवाद!







अमित~~