Monday, June 14, 2010

सरफरोशी

हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये,
मर मिटे जो अपने वतन पर,
उनको पयामी दीजिये,
यूँ तो पत्थरों में भी बसते हैं हमारे देवता,
देवता बस उनको समझ कर एक बार तो पुजिये!
देवों ने जो कर न दिखाया,
वो कर गुजरे वो नवजवाँ,
शीश अपना मातृभूमि को चढ़ा कर,
हो अमर वो चल दिए,
हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये!
खून जलता था वो उनका,
माँ के जंजीरों को देख कर,
रक्त अपना बहा कर,
सर पर बाँध कफ़न वो चल दिए,
हिन्द देश के सरफरोशों को सलामी दीजिये !
हमने दी न एक रत्ती,
वो तो जीवन दे गए,
जी सकें हम सर उठा कर,
काम ऐसा वो कर गए,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
२१ तोपों की सलामी से न होगा ये क़र्ज़ कम,
सर की बलि के साथ
रक्त के कतरों के संघ ये क़र्ज़ कम कीजिये,
भ्रष्टता और उग्रवाद को दफ़न कर,
माँ के उन सपूतों को याद कीजिये,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
यूँ कुछ तकल्लुफों की खातिर,
माजरे वतन का सौदा ना कीजिये,
सर उठा कर जी सके ये मुल्क, काम ऐसा कीजिये,
उन शहीदों की समाधी पर काम ये फूलों का कर जायेगा,
उन शहीदों के संघ हम सभी का नाम यूँ रह जायेगा,
मर मिटेंगे देश पर तो, कफ़न भी तिरंगी मिल पायेगा,
देशवाशियो के आँखों से आंशु फूल बन गिर जायेगा,
अमन में रह सके ये हिन्द, कुछ काम ऐसा कीजिये,
हिन्द देश के सरफ़रोशों को सलामी दीजिये!
देवता बस उनको समझ कर एक बार तो पुजिये!!






अमित~~

Wednesday, June 9, 2010

नाम!

नाम में क्या रख्खा है साथी,
कृष्ण कहो या उनको राम,
धर्म हो मेरा चाहे जो भी,
प्रभु के आगे बस कर्म प्रधान,
जैसा कर्म करोगे जग में,
वैसा फल देंगे भगवान,
हिन्दू, मुश्लिम, सिक्ख, इसाई,
उनके समक्ष सब एक समान,
जाती बनाये बस दो ही उसने,
नर-नारी! दृष्टि में उसके नहीं कोई प्रधान,
अन्तर किया नहीं जब उसने,
मैं-तुम अन्तर कर बनना चाहें क्यों भगवान?
नाम में क्या रख्खा है साथी,
अकबर कहो या उसको राम,
कोई कहता "अल्लाह-हु",
कोई कहता "हे भगवान"
धर्म हो मेरा चाहे जो भी,
प्रभु के आगे बस कर्म प्रधान,
नाम में क्या रख्खा है साथी,
कृष्ण, ईशु, अल्लाह या राम!!




अमित~~

Sunday, May 23, 2010

राष्ट्र भाषा

नमस्ते दोस्तों,

इस लेख का शीर्षक देख कर आपको इतना आभाश तो जरुर ही हो गया होगा की ये लेख भाषा के ऊपर लिखी जा रही है, लेकिन अब तक शायद आपने यह न सोचा होगा की ये लेख हिंदी भाषा के "दुर्भाग्य" पर लिखा गया है, जी हाँ, हिंदी भाषा के लिए फिलहाल "दुर्भाग्य" ही मुझे सबसे सटीक शब्द सूझ रही है, क्युकी जब कोई भाषा किसी देश की राष्ट्र भाषा कहलाये, और उसे बोलने वाले उसके देशवाशी ही उसकी दुर्गति करे तो इससे बड़े दुर्भाग्य की बात उस भाषा के लिए कोई और नहीं हो सकती!

आज हमारे देश की आज़ादी के जब लगभग ६३ साल पुरे हो चुके हैं, तब ऐसा लगता है जैसे की हिंदी भाषा के गुलामी के ६३वि वर्षगाँठ मनाई जा रही है, अंग्रेज तो हिन्दुस्तान को आज़ाद छोड़ कर चले गए, लेकिन अपने पीछे हिंदी भाषा को अंग्रेजी का गुलाम बना कर गए! कहने को तो हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन आज देश की ५०% जनता अपने दिनचर्या को संपन्न करने में अंग्रेजी का बखूबी इस्तेमाल करती है, हिंदी आये न आये, अंग्रेजी जरुर आती है, कल सुबह मेरे साथ एक दक्षिण भारतीय सज्जन खड़े थे, जब उन्होंने मुझसे बात करनी सुरु की, तब उनकी अंग्रेजी सुन कर मैं समझ गया की ये सज्जन दक्षिण भारतीय हैं, जनाब को अंग्रेजी तो बखूबी आती थी, लेकिन हिंदी में हाँ और ना के अलावा कुछ भी नहीं बोल पाते थे, ये कैसी व्यथा झेल रही है हिंदी?क्या अब यह कहना सही होगा? कि "हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा !" क्या अब ऐसा प्रतीत नहीं होता, कि हिंदी बस नाम मात्र को ही राष्ट्र भाषा के नाम से जानी जाती है?

आज बच्चे बोलना सीखते हैं तो माता पिता उन्हें पहले अंग्रेजी कि तालीम देना सुरु कर देते हैं, क, ख, ग, घ... आवे या ना आवे, अंग्रेजी कि पूरी वर्णमाला जरुर सिख जाते हैं, आज हमारे देश में अंग्रेजी बोलने को लोग शिक्षित होने की पहचान दे बैठे हैं, लोग यह भूल चुके हैं की अंग्रेजी भी हिंदी के ही तरह एक भाषा है, जिसका उपयोग बोल चाल के लिए अंग्रेजों के द्वारा किया जाता है! वो भूल चुके हैं की वो अंग्रेज नहीं हैं, और न ही वे अमेरिका या इंग्लैंड में रह रहे हैं, मैं पिछले ६ वर्षों से रूस में रह रहा हूँ, बखूबी अंग्रेजी और रुसी दोनों भाषा जनता हूँ, लेकिन मुझे आज तक एक भी ऐसा रुसी नहीं मिला, जिसने मुझसे बात चित की सुरुआत अंग्रेजी में की हो, जिन रूसियों को बखूबी अंग्रेजी बोलनी आती भी है, वो भी आपसे रुसी भाषा में ही बात करना ज्यादा पसंद करेंगे, और अगर आप अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हों, तो वो दुशरे ही पल आपसे कहेंगे, "कृपा कर रुसी भाषा में बात कीजिये, आप फिलहाल इंग्लैंड में नहीं, बल्कि रूस में हैं" मुझे यह सुन कर हर बार इसी बात की याद आई, की हिन्दुस्तान में किसी एक हिन्दुस्तानी ने आज तक किसी विदेशी से यह नहीं कहा होगा! क्या हमारी हिंदी भाषा अंग्रेजी या रुसी भाषा से कम धनि है? या फिर समय के साथ हम हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजी को हिंदी से ज्यादा धनि बना दिया है?

पिछले साल जब मैं गर्मी की छुट्टियों में घर गया था, तब की बात है, मेरे पिता जी दूकान में बैठे थे, एक ग्राहक आये, सामन का भाव पसंद न आने पर उन सज्जन ने मेरे पिता पर अंग्रेजी में बोलते हुए चिल्लाना सुरु कर दिया, जनाब रांची के अस.डी.ऍम थे, बड़े ही रौब से अंग्रेजी झाडे जा रहे थे, मेरे पिता को अंग्रेजी नहीं आती, वो बिचारे चुप रह गए, मैं वहीँ मौजूद था, यह देख कर मुझे बहुत गुस्सा आया, की एक व्यक्ति अंग्रेजी बोल कर मेरे पिता को चुप करा गया, उन महासय से मैंने अंग्रेजी में बात चालु की, और उनकी बोलती बंद करवाई, इसके पश्चात उन महासय ने अविलम्ब ही मुझसे पूछ लिया, "क्या करते हो बेटा? कहाँ पढाई करते हो?" मैंने उन्हें अपने बारे में बताया, और फिर उन्होंने बताया की वो रांची के "अस.डी.ऍम" हैं, बात तो ख़तम हो गई, लेकिन मेरे दूकान के आगे मेरे पड़ोशियों का जमावड़ा यह देखने के लिए लग गया की कौन इस ग्राहक को अंग्रेजी का अंग्रेजी से जवाब दे रहा है? बात यहीं ख़तम नहीं होती, रात को जब मेरे पिता जी घर पहुंचे, तो माँ से कहते हैं, देखो, आज अमित ने मेरा नाक ऊँचा कर दिया, उसने ग्राहक को अंग्रेजी का जवाब अंग्रेजी में दिया, सुमित (मेरा छोटा भाई) को तो अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ने का कोई फायदा ही नहीं हुआ, वो ऐसी अंग्रेजी नहीं बोल पाता! इस पुरे वाकिये ने मेरे मन में आज तक एक ही सवाल खड़ा किया है, लोग अंग्रेजी को इतना महान क्यूँ समझ रहे हैं? क्यूँ भूल जा रहे हैं वो, की अंग्रेजी केवल और केवल एक भाषा से ज्यादा कुछ भी नहीं, क्यूँ लोग अंग्रेजी बोलने को प्रतिष्ठा का विषय बना दे रहे हैं? आज स्कूल, कॉलेजों और कार्यालयों में दरख्वास तक अंग्रेजी में ही लिया जाने लगा है, कब तक हिंदी अपने ही देश में ये घुटन सहती रहेगी?

हिंदी की उपेक्ष केवल हमारे देश के नागरिक ही नहीं कर रहे, बल्कि नेता गन भी खुल कर कर रहे हैं, हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गाँधी जी के कार्यकाल में जब रुसी राष्ट्रपति हिन्दुस्तान दौरे पर आये थे, तब रुसी राष्ट्रपति ने अपना अभिभाषण रुसी भाषा में दिया, लेकिन वहीँ, हमारे प्रधान मंत्री राजीव जी ने अपना अभिभाषण यह भूलते हुए अंग्रेजी में पेश किया कि वो फिलहाल हिन्दुस्तान में हैं!

अब आप ही जरा सोचिये, हम अपनी भाषा को भूल कर उसके अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं या फिर अपने ही अस्तित्व को ख़तम कर रहे हैं? इस लेख को लिखने का मेरा एक ही उद्देश्य है, अगर इस लेख के जरिये मैं एक भी हिन्दुस्तानी के नज़र में अपनी हिंदी भाषा के प्रति थोडा भी झुकाव पैदा कर सका, तो मैं समझूंगा कि मेरा इस लेख को लिखना सफल हो गया, और हिंदी भाषा को भी पुनः खुद के अस्तित्व को खोने का डर नहीं सताएगा!

जय हिंद!






अमित~~

Sunday, May 16, 2010

पंख


एक पंख लगा दो मुझको माँ,


जो ऊँचे नभ में उड़ पाऊं मैं,


दूर जहाँ से आना चाहूँ,


बस तेरे पास पहुँच पाऊं मैं!




ना गिरने का डर होगा फिर मुझको,


बादल से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


जितना भी ऊँचा मैं चाहूँ,


माँ उतना ऊँचा उड़ जाऊं मैं!




एक पंख लगा दो मुझको माँ,


फिर खुले गगन में खुलकर,


चाँद सूरज से भी ऊँचा उड़ पाऊं मैं,


बस एक आज़ाद पंछी बन कर उड़ता ही चला जाऊं मैं!




थके ना कभी मेरे पर उड़ कर,


माँ बस इतना ही चाहूँ मैं,


पंख विशाल हो बस माँ इतना,


की तुम्हे भी साथ ले उड़ पाऊं मैं!




बस एक पंख लगा दो मुझको माँ,


अब उड़ना ही चाहूँ मैं,


थक चूका हूँ धरा पर बैठा,


आशमान की शैर कर आऊं मैं!




बस अब पंख लगा दो मुझको माँ, अब उड़ना ही चाहूँ मैं!!





अमित~~

Friday, May 14, 2010

कैसी विडम्बना !

यूँ तो पिछले ६ वर्षों में मैंने और मेरे दोस्तों ने रूस के हर मौषम का खूब आनंद लिया, लेकिन आज क्यूँ मुझे ऐसा लगने लगा की लोग आनंद उठाने से ज्यादा दिखावा करने में विश्वास रखते हैं? कल तक जब हम यहाँ के कड़ाके की शर्दियों में बहार घुमा करते थे, तब किसीने मुझसे यह नहीं कहा था, की "भारत की अपेक्षा यहाँ काफी ज्यादा ठण्ड है, हम यहाँ कैसे जी पाएंगे?" तो फिर आज अचानक सबको क्या हो गया? क्या एकाएक सबको दिखावे का सौख चढ़ गया, या फिर मेरे देखने और सोंचने का नजरिया बदल गया? कल तक यहाँ के -३०' तापमान में, जब की मनुष्य की हड्डियाँ तक ठण्ड से जमने लगती हैं, तब किसीको भारत और रूस के तापमान और रहन-सहन की तुलना करने की नहीं सूझी थी, लेकिन आज अचानक सबको क्या हो गया है, जो सभी एक एक कर यह कहते हैं कि "अब हम भारत जा रहे हैं, अब वहां कैसे रह पाएंगे?" मुझे न जाने क्यूँ, उनका ये सवाल बड़ा उटपटांग सा लगता है!

८ मई के दिन जब यहाँ का पारा चढ़ कर +३२' पर पहुँच गया तब सभी के मुह से एक ही बात निकल रही थी, कि, "बहुत ज्यादा गर्मी है, भारत में तो और भी ज्यादा गर्मी पड़ रही है, हम एक महीने बाद जब भारत जायेंगे, तब वहां कैसे रह पाएंगे?" क्या सब यह भूल गए हैं, कि हम भारत की मिटटी में ही जन्मे हैं, और अपने जन्म से अब तक के जीवन का ८५% समय हमने भारत में ही गुजरा है? या तो फिर मैं ही एक नया आर्टिकल लिखने के लिए इस बात को बेवजह तूल दे रहा हूँ? मैंने बहुत सोंचने की कोशिश की, लेकिन मुझे यह नहीं समझ आ रहा है, की यह कैसी विडम्बना है लोगों की, जो की आपने खुदके परिवेश से कुछ क्षणों के लिए बाहर आने मात्र से, उसे भूलने और झुठलाने की कोशिश करने लगते हैं? क्या बचपन से किशोरा अवस्था और जवानी की सुरुआत तक हमने भारत में पड़ने वाली गर्मी को नहीं झेला है? क्या घर पर बिजली चले जाने पर हम गर्मी के दिनों में भी बिना पंखे के नहीं रहे हैं? क्या इन बातों को कोई भी भारतीय नकार सकता है? तो फिर आज मेरे दोस्तों को क्या हो गया है? वो ऐसा क्यूँ सोचने लगे हैं की अब वो भारत की गर्मी भरे दिनों में कैसे रहेंगे? या फिर उनके यहाँ के गुजारे हुए महज़ ६० महीने, उनके भारत में गुजरे हुए औसतन २२० महीनों पर भारी पड़ गए हैं?

जब इस विषय पर मैंने उनसे पूछा, की गर्मी तो उन्हें बचपन में भी लगती थी, तब तो कभी ऐसा नहीं सोंचा उन्होंने? तो अब क्यूँ? तो कुछ ने कहा, "अब ठन्डे प्रदेश में रहने की आदत हो गई है" , कुछ का कहना था, "तब हम बच्चे थे, तो सब चल जाता था, अब नहीं सह पाएंगे वहा की गर्मी को" कुछ ने तो घर पहुँचते ही अपने कमरे में एयर कन्दिस्नर तक लगवाने कि बात कर डाली ! मुझे थोड़ी हसी आई, मैं सोंच में पड़ गया, कि जिस गर्मी में रहने की आदत २० सालों से थी, वो आदत महज़ ६० महीने मे बिलकुल बदल गई, तो ६० महीने में लगी आदत को तो महज़ २-३ महीने में ही बदल जाना चाहिए! ख़ैर, जो भी हो, अब भगवन से यही दुआ है, की उनकी आदत जल्द ही बदल जाए, वरना हमारी जन्मभूमि का कलेजा यह सोच कर अन्दर ही अन्दर बड़ा कचोटेगा की उसके बच्चे उसे उसके परिवेश को इतनी जल्दी भूल गए!

लोग कहते हैं की बदलाव ही प्रकृति का नियम है, लेकिन मैं यह समझता हूँ की अगर इसे लोग बदलाव का नाम देते हैं तो यह सरासर गलत है, इसे बदलाव नहीं, बल्कि अपनी असलियत से भागने का नाम देना चाहिए! बहुत से सज्जन मेरे इस अर्टिकल से सहमति नहीं रखते होंगे, तो उनसे मैं पहले ही क्षमा मांग लेना चाहूँगा, और प्रभु से यही प्रार्थना करूँगा की, अपनी जन्मभूमि और उसके परिवेश को भूल कर झूठा दिखावा करने की मति वो किसीको ना दे! धन्यवाद!




अमित~~

Friday, May 7, 2010

नारी तेरे रूप

जननी तू, जन्मभूमि तू,
तू ही है अर्धांगिनी !
सुता, अजा और शक्ति तू,
तू ही कहलाती बामांगिनी!

माता के नव रूपों में तू,
है सीता तू, शावित्री तू!
शिव की आधी शक्ति तू,
पीड़ा सह जग को जीवन देती तू!

मीरा बन भक्ति के पाठ सिखाती,
काली बन जग के प्राण बचाती!
है अबला तू, सबला भी तू,
लक्ष्मी भी तू, तुलसी भी तू!

विद्या के रूपों में है तू,
है श्रृष्टि तू, धरती भी तू!
है जीवन तू और मृत्यु तू,
गंगा भी तू, ममता भी तू!

जग पर क़र्ज़ बड़े हैं तेरे,
तेरे समक्ष शीश झुके हैं मेरे!
नारी, कोटि-कोटि नमन है तुझको,
माँ तू ही है जीवन दाईनि!





अमित~~

Thursday, May 6, 2010

मिथ्यांचल

नमस्ते दोस्तों,



मिथ्यांचल शीर्षक देख कर आपने शायद यह सोचा होगा कि मुझसे जरुर टाइपिंग में कोई गलती हुई है, लेकिन आपको जान कर शायद थोडा अजीब लगेगा कि यहाँ मुझसे टाइपिंग में कोई गलती नहीं हुई है, बल्कि जान बुझ कर मैंने शीर्षक "मिथ्यांचल" रखा है!



इस शीर्षक को चुनते वक़्त मेरे मन में बस एक ही तथ्य उभर रहा था, कि जिस तरह मैथिलि भाषा बोलने वाले लोगों के भूमि को "मिथलांचल" कहा गया, उसी तरह मिथ्या वचन का बड़ी सरलता से उपयोग करने वाले लोगों की भूमि (धरती) का नाम मुझे "मिथ्यांचल" से ज्यादा सटीक कुछ नहीं लगा!



आज गुस्से में आ कर अपना भडाश निकाल रहा हूँ और धरती को मिथ्यांचल नाम दे राह हूँ तो इसका मतलब यह कतई नहीं, कि मैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का अवतार हूँ, मेरे मन में भी उतनी ही मिथ्या और कलेश छुपी हुई है, जितना कि किसी और मनुष्य के मन में होगा, हो सकता है की यह सब मुझमे कुछ ज्यादा ही हो!



अब आप यह सोंच रहे होंगे, कि आज ये अचानक मुझे क्या हो गया? जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा हूँ मैं, तो बस इतना ही कहूँगा कि, यूँ तो मेरी सहनशीलता की परीक्षा रोज ही होती थी, किन्तु आज मेरे सहनशीलता का बाँध बुरी तरह टूट गया, और भडाश निकालने के लिए लिखने बैठ गया मैं!



आज जहाँ देखिये वहां झूठ का ही पुलिंदा नज़र आएगा आपको, दफ्तर में बॉस की झूठी तारीफ़ करो तो तरक्की, न करो तो तबादला! क्लास में देर से पहुचो, झूठा बहाना बनाओ तो एंट्री , सच कह दो की नींद नहीं खुली, तो क्लास से बहार! बैंक में सच बात बता कर लोन मांगो तो लोन नहीं मिलेगा, झूठ कह कर और घुश दे कर लोन मांगो तो तुरंत मिल जायेगा! बीबी को सच बोलो तो शक करेगी, झूठ बोलो तो मान जाएगी! अब तो भिखारी भी झूठ बोल कर ही भीख मांगते हैं! और तो और, ट्रेन में बिना टिकेट यात्रा करने वाले लोग ज्यादा शान से चलने लगे हैं, साथ ही ट्रेन में मौजूद टी.टी को मामा कह कर संबोधित करने लगे हैं, कहें भी क्यूँ ना? ये मामा ५० रु की टिकेट के बदले २० रु ही ले कर छोड़ जो देता है! राजनेता से लेकर अपने दोस्त और रिश्तेदारों तक की हशी में भी एक झूठ दबा हुआ साफ़ नज़र आ जायेगा आपको, हशी तो हशी, अंशु तक झूठे हो गए हैं! और हाँ, अगर आप किसी दोस्त या परिजन के मुश्किल और मुशीबत भरे हालत में उसकी मदद करने का सोंच रहे हैं, तो यह कार्य भूल से भी न करें, वरना अंत में यह अवश्य सुनने को मिलेगा की "तुमने तो मेरी मदद स्वार्थ वस् की थी"! कुछ तो यह कहने से भी नहीं चुकेंगे की "तुम सब एक जैसे हो, डबल क्रोस करते हो", उनमे से भी थोड़े एक तो सबके गुरु साबित होंगे, क्यूंकि आप उन्हें जिस खड्डे में गिरने से बचा रहे होंगे, वो आपको ही उस खड्डे में धकेल कर, और आपके सर पर ही पाँव रख कर उस खड्डे को पार कर जायेंगे!



अब आप ही बताइए, क्या ऐसी परिस्थितियों में धरती को "मिथ्यांचल" कहना गलत होगा? क्या मैं और आप उपरोक्त बातों से इनकार करने का बुता रखते हैं? हो सकता है की कुछ लोग मेरे इस अर्टिकल से इत्तिफाक या सहमति न रखते हों, तो उनसे ये "मिथ्यांचल वाशी" पहले ही क्षमा मांग लेना चाहेगा! धन्यवाद!







अमित~~

Monday, April 19, 2010

धर्म

पिछले १ महीने से मैं कई बार सोंच चूका हूँ, लेकिन समय की कमी और काम में व्यस्तता से उभर कर इस आर्टिकल को लिखने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था, अंततः आज मुझे वह समुचित समय मिल ही गया जब मैं इस आर्टिकल को लिख सक रहा हूँ!

आज जब भारत आज़ाद है, और इस आज़ाद भारत में १.२ अरब जितने लोग रहते हैं, तब लोगों को जितनी रोजी रोटी और घर, परिवार की नहीं पड़ी, उससे ज्यादा वे धर्म और जाती के पीछे भाग रहे हैं, किसीको मंदिर चाहिए, तो किसीको मस्जिद, किसीको गुरुद्वारा चाहिए, तो किसीको गिरिजा-घर! देश में हर रोज करीब २७० नवजात शिशु सड़कों, कचरे के डब्बों और नालियों के किनारे फेके हुए पाए जाते हैं, कोई उन्हें घर दिलवाने का नहीं सोच सकता, लेकिन धर्म को मजबूत कैसे करें, ये सोचने का समय हर किसीके पास है, इस संख्या को कम कैसे किया जाए, इसपर कोई ध्यान नहीं देता, लेकिन धार्मिक दंगों को अंजाम दे कर और भी हज़ारों नवजात शिशुओं को बेघर और अनाथ बनाने का जोखिम हर कोई उठाने को तैयार दीखता है, जिसे देखो अपनी रट लगाये बैठा है, "मैं हिन्दू हूँ", "मैं मुसलमान हूँ", "मैं सिक्ख हूँ" और "मैं इसाई हूँ" कोई माइनोरिटी कहलाता है तो कोई मजोरिटी कहलाता है, किसीको किसीके नवाज़ से परेशानी है, तो किसीको किसीके मन्त्रों से नफरत, इन्ही बातों में उलझे पड़े हैं सभी, और तो और, इतना ही जैसे कम था, अब फॉरवर्ड-बक्वोर्ड और पिछड़ी जाती एवं जनजाति के नाम की एक नयी लड़ाई सुरु कर दी सबने, कोई जाट है तो उसे आरक्षण चाहिए और कोई खुद को दलित कह कर सत्ता पर काबिज़ हो बैठा है, खुद के बनाये इस धर्म और जाती रूपी दलदल में लोग खुद ही इस कदर फंस और उलझ चुके हैं, की किसी को यह नहीं दिख रहा की वो इन सब के चक्कर में अपना असली धर्म पुर्णतः भूल चुके है! "असली धर्म" जिसमे न तो कोई हिन्दू है, और न कोई मुसलमान, न कोई सिक्ख और न ही इसाई, उस धर्म को "मानवता" का नाम दिया गया है, जहाँ केवल और केवल प्यार ही प्यार भरा हुआ है, लेकिन अफ़सोस तो इस बात की है, कि आज किसीको यह धर्म दिख नहीं रहा, हर व्यक्ति एक दुसरे के खून का प्याशा है!

इस विषय पर मैंने कुछ सज्जनों की राय जाननी चाहि, जान कर बड़ी ही हैरानी हुई, क्यूंकि उनमे से सभी का झुकाव अपने अपने धर्म के प्रति था, कुछ तो इतने कट्टर थे की अगर उन्हें आधी रात को भी उनके धर्म के ओर से लड़ने को कहा जाए, तो वो बिना कुछ कहे बड़ी सहजता से किसीकी भी जान ले लेने को तैयार दिखेंगे, लेकिन उनमे से एक भी ऐसा नहीं दिखा, जो मानवता रूपी धर्म के प्रति थोड़ी भी श्रद्धा रखता हो, कोई कह रहा था, "दिनों दिन मुसलामानों की संख्या हमारे देश में बढती जा रही है" कोई कह रहा था की " दिनों दिन हम हिन्दुओं को दबाया जा रहा है" तो कोई कहता था की "लोगों को रोटी, कपडा ओर माकन दे कर उनका धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है, उन्हें इसाई बनाया जा रहा है" लेकिन किसीने यह नहीं कहा, की "हर बार धार्मिक दंगों में हजारों माओं की कोख उजड़ जाती है, हज़ारों औरतों का सुहाग छीन जाता है और लगभग उतने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं", कहीं कोई मंदिर गिराना चाहता है, तो कोई मस्जिद गिराना चाहता है, लेकिन कोई एक बेघर का घर बसाने की बात नहीं करता, धर्म के नाम पर औरतों को विधवा बनाने वाले लोग कभी किसी गरीब की बेटी का व्याह करवाने का नहीं सोचते!

कल का तो पता नहीं, कल किसने देखा है, लेकिन आज मुझे यह सोंच कर खुद पर बहुत शर्म आ रही है की मैं भी उन्ही धर्मों में से एक धर्म का हिस्सा हूँ, और मेरा धर्म भी हज़ारों बेगुनाहों की ज़िन्दगी छिनने का एक बहुत ही बड़ा कारक है, क्या मतलब बनता है भारत की ऐसी आज़ादी का? और क्या मतलब बनता है ऐसे धर्म का, जिसके वजह से इतने बेकसूर बेवजह मारे जा रहे हैं, कोई जेहाद चला रहा है तो कोई शिव, हनुमान और राम के नाम की शेना बना रहा है, कोई किसीका धर्म परिवर्तन करवा रहा है तो कोई मंदिरों और गुरुद्वारों पर सोने जाडवा रहा है! आज सुच मच ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मानवता मर चुकी है, अब कोई मानवता नमक धर्म हमारे इस संसार में बचा ही नहीं है, अब तो शायद धरती भी खुद पर रो देगी और खुद ही प्रकृति से प्रलय का श्राप मांग लेगी, की उसने कैसे मानवों का बोझ उठा रक्खा है, जिनमे जरा भी मानवत बची ही नहीं है!

पिछले कुछ सप्ताहों में मैंने काफी सारे लोगों के ब्लोग्स को पढ़ा और उनके विचारों को जाना, काफी कुछ सिखने को मिला, लेकिन जिसकी मै तलाश कर रहा था, वो अब तक नहीं मिल पाया था कहीं, शायद मेरी तलाश में ही कोई कमी या त्रुटी रही होगी, अब आज मैं खुद ही अकेला धर्म के इस तांडव को लिख रहा हूँ, अगर मेरे इस आर्टिकल से एक भी व्यक्ति को मैं मानवता के राह पर एक कदम भी आगे बाढा सका, तो मैं समझूंगा की मेरा लिखना सफल हो गया, आशा है आप सब का साथ टिप्पणियों के रूप में जरुर मिलेगा!







अमित~~

Friday, April 16, 2010

माँ अब मैं क्या करूँ?

रातें तो हमेशा काली थीं,
अब दिन भी मेरा अंधेरा हैं,
कबसे आश लगा बैठा हूँ,
नहीं दीखता कहीं सबेरा है,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


पता नहीं इस पगडण्डी पर,
कितने ठोकर और पड़ेंगे,
आगे बढते हुए पाँव में,
कितने कांटें और चुभेंगे,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


जीवन के इस पगडण्डी पर,
खो बैठा हूँ शायद खुदको,
कदम बढाता हूँ आगे जब,
राह चुभते बन कंकड़-पत्थर,
तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?


आंशु रोक रखे हैं मैंने,
पर दिल की धड़कन तेज है,
थक चुका हूँ मैं अब अकेला,
धुन्ड़ता हुआ बस एक सवेरा,
अगर मिला ना वो अब भी मुझको !

तो तुम ही बोलो माँ अब मैं क्या करूँ ?



अमित~~

Monday, April 5, 2010

अधुरा बचपन

कल अचानक किसी सज्जन के ब्लॉग की लिंक मिली, और ब्लॉग पर पहुँच कर पता चला की उन सज्जन को तो मै कई वर्षों से जनता हूँ, काफी समय से उनसे कोई संपर्क नहीं हो पाया है, इसी वजह से शायद उनके ब्लॉग के सम्बन्ध में मुझे कोई जानकारी नहीं थी, खैर, उनके ब्लॉग में एक बड़ा ही अच्छा आर्टिकल देखा, आर्टिकल दादी और पोते के रिश्ते पर आधारित था, आर्टिकल का हर हिस्सा यही कहता था की एक दादी अपने पोते से कितना प्यार करती है, किस तरह पोते अपनी दादी से रातों में कहानियां सुनते हुए सोया करते हैं, और किस तरह दादी उसके पोते के खिलाफ एक भी बुरी बात सह नहीं सकती!

इस आर्टिकल को पढ़ते वक़्त मन में एक अजीब से जलन की भाव आ रही थी, खुद के अभागेपन पर तो गुस्सा आ ही रहा था, साथ ही अपने दादी, दादा, नाना और नानी पर भी गुस्सा आ रहा था, मेरे इस गुस्से का कारण भी शायद सही था, क्युकी बचपन से जिसने दादा, दादी, नाना या नानी का प्यार क्षण भर के लिए भी न पाया हो, उसे दूसरों के मुह से दादी, दादा, नानी और नाना के प्यार और किस्से कहानियों की बातें सुन कर शायद ऐसा ही महसूस होगा! आज तक हॉस्टल में भी जब मेरे दोस्त मुझे अपने दादा या दादी के लाड प्यार की बातें बताते थे, तब भी मुझे ऐसा ही महसूस होता था, लेकिन आज जलन इतनी बढ गई की हाथ लिखने तक को उठ पड़े!

मेरी नानी को तो मै कोई दोष न ही दूँ तो बेहतर होगा, क्यूंकि वो बिचारी तो तब ही भगवन को प्यारी हो गई थी , जब मेरी माँ केवल १२ वर्ष की थी, तब तो इस दुनिया में मेरा नामो-निशाँ तक नहीं था, लेकिन जब बात दादी, दादा, और नाना पर आ कर रूकती है, तब मेरे मन में ढेरो सवाल उठने लगते हैं, मनन पूछने लगता है की आखिर हम दोनों भाइयों का कुशुर क्या था? यही की हमसे पहले हमारे दादा और दादी के ९ पोते और ५ पोतियाँ हो चुके थे, इसी लिए उनके मन में हमारे प्रति कोई लगाव ही नहीं बचा था, बचपन में हमारे सामने हमारे ही दादा दादी अपने दुसरे पोते पोतियों को मेले घुमाने ले जाते थे, लेकिन कभी हमसे उन्होंने पुचा तक नहीं, की क्या हम भी उनके साथ घुमने आना चाहते है? जब हमारे चचेरे भाई बहिन मेले से वापिस आते, तो उनके पास मेले से ख़रीदे हुए खिलोने होते, वे लोग हमें उन खिलोनो को दिखा कर खुद में इतराते, लेकिन हम बिचारे दोनों भाई मन ही मन ये सोच कर रह जाते, की उनके पास मिटटी के खिलोने है तो क्या हुआ, हमारे पास उनसे अच्छे खिलोने है, जो की बैट्री से चलते है, लेकिन मन में ये मलाल जरुर रह जाता था, की हमें दादा दादी ने कुछ नहीं दिलवाया, हमारे शहर में एक बड़ा ही फेमस २ दिनों का मेला लगता है, जिसे लोग "तपो वन" के मेले के नाम से जानते है, इस मेले में आपको ज्यादातर बच्चे अपने दादा दादी के साथ ही दिखेंगे, लेकिन आपको जान कर बड़ा आश्चर्य होगा, की मैंने आज तक वो मेला नहीं देखा है! और कारण बस इतनी सी थी, की पापा तो काम में हमेशा व्यस्त रहे और माँ रीती रिवाजो से बंधे रहने के कारण घर से अकेली बहार नहीं जा सकती थी, और हमारे प्रिय दादा दादी के लिए तो हम शायद इस दुनिया में रहते ही नहीं थे! दादा दादी की एक और भी खासियत थी, कही भी जाये, कभी भी जाये, अपने नाती नातनियों के लिए खिलोने खरीदना नहीं भूलते थे, लेकिन हम दोनों पोते ही शायद उनके आँखों में चुभते थे, कभी उनके मन में तनिक ख्याल तक नहीं आता की हमें भी थोडा प्यार दे दें , लेकिन हाँ, दादी को अपने बेटे (मेरे पिता) पर बड़ा प्यार आता था, क्यूंकि खुद के खर्चे के लिए बेटे से पैसे जो मिलते थे, हसी आती है जब इस विषय पर सोचता हूँ तो, की किस कदर लोग अपने स्वार्थ वस् कही भी झुक जाते हैं, और स्वार्थ पूरा होते ही गिरगिट के तरह रंग बदल लेते हैं!

अब बात आती है हमारे श्री श्री १०८ नाना जी की, इनका भी कुछ ऐसा ही हाल था, हमसे २०-२० साल बड़े मौसेरे भाइयों को तो नाना जी का खूब प्यार मिला, लेकिन हम २ भाई ही शायद करमजले पैदा हुए थे, हमारे पैदा होने से पहले ही नाना जी के ४ पोते भी पैदा हो चुके थे, अब नाना जी को अपने पोतो के अलावा दुनिया कही नज़र ही नहीं आती थी शायद, उनका सोचना था की उनकी जिम्मेदारी केवल उनके पोतों के प्रति ही है, नातियो के प्रति अब उनकी कोई जम्मेदारी नहीं, और इस बात का खामियाजा भुगतने के लिए भी बस हम २ भाई ही बच गए थे! दादा दादी के लाड प्यार और किस्से कहानियों से तो वंचित रह ही गए थे हम, अब नाना ने भी नकार दिया!

कभी कभी सोंचता हूँ की अजीब खेल है किस्मत का भी, जिसने हमें कभी ये जान्ने तक का मौका नहीं दिया की दादा दादी और नाना नानी किस तरह किस्से और कहानियां सुनते हैं, किस तरह दादी को पोते से प्यार और लगाव होता है, लोग कहते है की दादी वो जादूगर होती है, जिसके प्राण उसके पोते रूपी तोते के अन्दर होता है, लेकिन किस्मत का खेल देखिये, हमें तो कभी ऐसा तोता बन्ने का मौका ही नहीं मिला, दादी को उसका कुरूप पोता भी सुन्दर दीखता है, लेकिन, लेकिन यहाँ तो हमें यही पता चल पाया, की "दादी को पोता दीखता ही नहीं है", हमारे लिए तो हमारे माता पिता ही हमारे दादा दादी और हमारे माता पिता ही हमारे नाना नानी थे, जो भी प्यार मिला, बस उनसे ही मिला, खिलौने भी उन्होंने ही दिलाया और कहानियां भी उन्होंने ही सुनाई!

कितना अजीब लगता है, लोग इन छोटी छोटी बातों का ख़याल नहीं रखते, लेकिन शायद ये भूल जाते हैं की ये छोटी बातें किसी के लिए बहुत मायने रखती हैं, और ये ही बातें जब बुजुर्ग नज़र अंदाज़ कर जाते है, तो बच्चों के मन में ये बात इस कदर घर कर जाती हैं की विष का एक ज्वालामुखी बना देती हैं, बच्चे अपनी पूरी जिंदगी इन बातों को जब जब याद करते हैं तब तब उनके मनन की ये ज्वालामुखी फट पड़ती है, और वो खुद को ही अभागा समझ कर सांत हो जाते हैं, मैंने आज ये बात अपने इस ब्लॉग में इस लिया रखना उचित समझा, ताकि मेरे ही जैसे किसी एक भी बच्चे के बुजुर्ग अगर इस कहानी को पढ़ कर या सुन कर उन्हें थोडा भी लाड प्यार दे दें, तो मै समझूंगा की मेरे इस आपबीती को लिखने का उद्देश्य सफल रहा!





अमित~~

Thursday, April 1, 2010

इन्तेजार सुबह का

यूँ तो कहने को आज मानव ने काफी तरक्की और खोजें कर ली है, लेकिन क्या सच में मानव इन खोजों और तरक्कियों का सही उपयोग कर पा रहा है? क्या वह इन तरक्कियों से सच मच खुश है? या फिर ये सारे खोज उसके लिए भस्मासुर को दिया शिव का वरदान साबित हो रहा है? आज मुझे मेरी ८ वीं कक्षा की वो वाद-विवाद प्रतियोगिता याद आ रही है, जिसमे हमारे प्रधानाचार्य ने हमें गालिभ की कही एक बात बताई थी, "सावधान ऐ मनुष्य, यदि विज्ञान है तलवार, तो तज कर दे उसे फेंक मोह स्मृति के पार" शायद गालिभ को उस समय बखूबी यह एहसास हो चूका था की विज्ञान के आविष्कारों का मनुष्य गलत उपयोग करेगा, और परिणाम भी खुद उसे हे भोगना पड़ेगा!

आज जब अखबार या किसी समाचार पत्रिका पर नजर डालता हूँ, तो हर पन्ने पर एक आतंकवादी गतिविधि या तो किसी उग्रवादी के द्वारा किया गया बम बिस्फोट जैसी ही घटनाएँ नज़र आती हैं, आज तक टीवी, रेडियो, इन्टरनेट या फिर समाचार पत्रिकाओं में देखि, सुनी या पढ़ी घटनाओं से वैसा एहसास या अनुभव नहीं हो पाया था, जो आज मैंने महसूस किया!

सुबह ८:०० बजे हर रोज की तरह मैं हॉस्पिटल के लिए निकल चूका था, हॉस्पिटल पहुच कर पाया की हॉस्पिटल पर पुलिस की टुकडियां मौजूद हैं, जब मैं ड्यूटी पर पंहुचा टब एक पतिएन्त ने बताया की करीब ४० मिनट पूर्व मोस्को के "लुब्लियांका" मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो ट्रेन के २ रे डब्बे के अन्दर एक जोरदार बम धमाका हुआ, जिसमे करीब २५ लोगों के मरने की खबर है, जबकि २५ से भी ज्यादा लोग घायल बताये जा रहे हैं! मनन थोडा विचलित हो गया, क्यूंकि मई भी वह से काफी पास ही रहता हूँ, लोगों ने बताया की मेट्रो स्टेशन के कैमरा से पता चला की एक औरत ने अपने शारीर पर बम बाँध कर इस धमाके को अंजाम दिया, मनन ही मन मैं सोच रहा था, की जननी कही जाने वाली एक औरत ऐसे काम करने से पहले क्या खुद के बच्चे का चेहरा देखना भूल जाती हैं? क्या उसे ये समझ नहीं होता की अगर ऐसे ही किसी धमाके में उसके खुद की औलाद मर जाए तो उसपर क्या बीतेगी? इन्ही सवालों में उलझा हुआ मैं अपने सेनिओर डॉक्टर के केबिन में पंहुचा, डॉक्टर को मरीजों की हिस्टरी दे कर मैं वहां से कुछ अन्य मरीजों की हिस्टरी ले हे रहा था कि डॉक्टर साहब ने मुझसे पुचा, अमित, तुम्हारे देश में तो ये हर रोज होता है, कैसे रहते हैं लोग वहां? क्या उन्हें डर नहीं लगता? यह सुन कर मैं कुछ देर चुप रहा, तभी अचानक टीवी पर खबर आई कि इस बार फिरसे मास्को मेट्रो के हे पार्क कुल्तुरनी स्टेशन पर एक और ट्रेन में धमाका हुआ, और इस बार भी एक महिला ने ही अपने शारीर पर बम बांध कर धमाके को अंजाम दिया, और इस बार करीब १६ लोगों कि मृत्यु हुई है और २० से ज्यादा घायल बताये जा रहे हैं!

यह सुन कर डॉक्टर साहब ने कहा, अब तो मुझे सच में चिंता हो रही है, ये लोग ऐसा क्यूँ करते हैं? मैंने बस यूँ ही जवाब दे दिया, सर , वे लोग पागल हैं, और हमारे पागल खानों में इतनी जगह नहीं बची है कि उन सब को वहां भारती किया जा सके, बस इसी लिए वे लोग उत्पात मचा रहे हैं बहार! इसपर डॉक्टर ने तड़क कर जवाब दिया, तब तो इन सारे पागलों को मार डालना चाहिए, और हाँ हिंदुस्तान में पागलों कि संख्या बेहद ज्यादा है शायद, तभी आये दिन वहां बम धमाके होते रहते हैं, तुम्हारी सरकार उन पागलों का कुछ करती क्यूँ नहीं? मैंने बस इतना ही जवाब दिया, "सर, पागल अगर आपके खुद का भाई या बहिन हो तो उसे आप मार डालेंगे? या फिर उसका इलाज करेंगे?" डॉक्टर ने तो मेरी बात पर हस दिया, और बोले, इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मैं खुद से और उनकी बात से संतुस्ट नहीं हूँ, क्या सच में इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है? या फिर उसका इस्तेमाल करने वाला मनुष्य? मेरे हर सोच में मुझे मंनुस्य जिम्मेदार नज़र आता है, पर अब तक मै ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर कब तक ये मौत का नंगा नाच चलेगा? कब तक हम जेहाद, आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद के नाम पर खड़े खड़े हाथ पर हाथ धरे ये मौत का तमाशा देखते रहेंगे? कब तक मनुष्य अपने ही आविष्कारों का गलत इस्तेमाल करता रहेगा और खुद ही उसका खामियाजा भुगतता रहेगा? कब तक हर माँ अपने बेटे के मरने का सोक मनाती रहेगी और कब तक हर बाप अपने कलेजे को मजबूत बनाता रहेगा?

आज कोई देश अपनी ताकत दिखाने के खातिर विज्ञान का दुरूपयोग कर रहा है, तो कोई आतंकवादी बन कर विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए उसका जवाब दे रहा है, क्या वे इस बात को जरा सोचते भी नहीं, कि जिस परमाणु वैज्ञानिक ने परमाणु उर्जा कि खोज कि थी, उसने इस उर्जा को खोजने के बाद इसका प्रयोग कहा करना चाह था, या फिर जिसने बमों का आविष्कार किया, उसने इसे किस इस्तेमाल के लिए बनाया था? आज अगर मनुष्य अपने इस दुरुपयोगी रवैये से बाज़ आ कर थोड सोंच विचार कर कोई फैश्ला ले, तो उसे पता चलेगा कि हर रोज उसने कितनी माओं को रोने से बचा लिया और कितने हे पिताओं को टूटने से रोक लिया, लेकिन ऐसा होना तो जैसे आज के समय में नामुमकिन हे दीखता है!

अफ़सोस कि बात तो ये है, कि आज हमारी सरकारें भी इनसे नजाद पाने के लिए कोई थोश कदम नहीं उठा रही, महात्मा गाँधी को रास्ट्र पिता कह तो दिया हमने, और विश्व ने उन्हें "विश्व शान्ति दूत" का नाम तो दे दिया, लेकिन उनके विचारों को आतंकवाद के खिलाफ इस्तेमाल में नहीं ला रहा कोई भी, हर किसी को खून के बदले खून और आँख के बदले आँख ही चाहिए, सच्चाई शायद ये है कि इन्हें महात्मा गाँधी नहीं, बल्कि हम्मु राबी ज्यादा पसंद है, और ये हमेशा उसी कि कानून संहिता का उप्याओग करते हैं!

किसीको विज्ञान का सदुपयोग कर अपने देश को आगे बढाने कि नहीं पड़ी, जिसे देखो वो विज्ञान का दुरूपयोग कर पडोशी देश को पीछे करने में लगा है, आतंकवादी अपनी बात मनवाने के लिए बम बिस्फोट करते हैं, सैकड़ों लोगों कि जाने ले कर उनके खून को पानी कि तरह बहाते हैं, तो उग्रवादी रेलवे कि पटरियां उड़ा कर रेल कि दुर्घटना को अंजाम देते हैं!

अफ़सोस तो ये है कि इतना सुब होने पर भी मनुष्य के कानों में जू तक नहीं रैंग रही, और लगातार वो एक के बाद एक ऐसे ही काम करता जा रहा है जिससे मानव जाती गर्त कि ओर कदम डर कदम बढती जा रही है, आज ग्लोबल वार्मिंग से ले कर बम धमाके तक ने एक सामान्य मनुष्य को इतना डरा कर रख दिया है कि वो अपने घर से बहार निकलने से पहले १० बार सोचता है, और इन्ही कारणों से उसने आज खुदको घर पर कैद कर लिया है, पता नहीं कब थमेगा ये बवंडर, और कब होगी एक नयी सुबह, जो हम सुब को रहत और शुकून भरी एक शांत-खुशहाल जिंदगी देगी, "मुझे इन्तिज़ार है उस सुबह का"

Sunday, March 28, 2010

जलती भारती

नोटों की माला पहन के माया, पीछे छोड़ गई हर माया,
राज ने राज़ दबा रक्खे हैं, बाला के बाल छुपा रक्खे हैं!

लालू लाल, मुलायम पीले, जाया के जूते, ममता के बूते,
काले कोयले के निचे शीबू ने, सारे रंग दबा रक्खे हैं!

ताबूत से ले कर तोपों तक, मंदिर से ले कर मस्ज़िद तक,
जात, धर्म के दंगों से, भारत को रण क्षेत्र बना रक्खे हैं!

खुद को कह कर गाँधीवादी, नोटों की गड्डी छिपा बैठे हैं,
गाँधी को परमपिता कह कर ये, पत्ते पर उन्हें बिठा रक्खे हैं!

गाँधी के मूल विचारों का ये, हर तौर पे मज़ाक बना रक्खे हैं,
बोश,तिलक,आजाद के बलि का, नोटों से मोल लगा बैठे है!

चारे से ले कर अलकतरा तक, एक एक कर सब चबा बैठे हैं,
आतंक से ले कर उग्रवाद तक, हर मुद्दे को भुना बैठे हैं!

रोक सके न और कहीं जब, नारी को मुट्ठी में दबा बैठे हैं,
विधेयक की गाथा गा गा कर, नारी के राह में कांटें बीचा रक्खे हैं!

सोता हुआ बेटा कब जागे, भारती ये आश लगा बैठी है,
कब मिलेगी उसको मुक्ति, अब तो बस थोड़ी ही सांस बची है!






अमित~~

Monday, March 22, 2010

DHUNDLAATI ZINDAGI

log kehte hain ki bachpan or bachpan ki yaaden piche chhut gai, wo khel or nischhal hasi piche chhut gai, wo school or maasumiyat piche chhut gai, tute khilone or aashu pichey chhut gaye, lekin koi ye nahi kehta ki aaj hamara wo ghar chhut gaya, mata pita chhut gaye, bhai, behan or ristedar chhut gaye, bachpan se jawani tak ke saare dost chhut gaye. Or aaj samay aisa aa gaya hai, ki bharat ka har sikshit or naukri pesha navjawan apni jindagi ke raah me akela khada reh gaya hai.

Har mata pita apne bachche ke paida hone ke baad se he ye jarur sochne lagte hai ki "mera bachcha Doctor, Engineer, Advocate, M.B.A ya to Teacher banega, lekin ye sochte waqt unhe is baat ka tanik bhar bhi ehsaas nahi rehta, ki agar unka bachcha inme se koi v pesha chunega, to shayad hamesha ke liye unse dur ho jayega, or is khayal se koson dur we bachche ko kaleje ke tukde ke tarah paalte hai, or jub bachcha bada hokar aise he kisi peshe ko apnaane ke liye apna kadam ghar se bahar nikalta hai, tab maa ki aankhe bharne lagti hai, baap ka kaleja kachotne lagta hai or khud us bachche ki palken bhi sukhi nahi reh paati, lekin us waqt wo apne bhawisya ko bina dekhe ye sochta hai ki wo 4-5 saalo me wapis apne ghar, apne mata pita ke paas laut aayega. Jo ki fir kavi mumkin nahi ho pata, Bihar ke Gaya jile ka rehne wala bachcha M.B.A karne Pune pahuchta hai, or paddhai puri hone ke baad uski naukri Delhi me lagti hai, Kanpur ka rehne wala bachcha engineering ki paddhai paddhne Bangalore pahuchta hai, or paddhai ke baad use naukri Mumbai me milti hai,koi orissa se tamilnadu pahuch jata hai, to koi bengal se rajasthan, or koi gujarat se Delhi. Or in sub ke bich jo unse hamesha ke liye chhut jata hai, wo hota hai apna ghar or mata pita ka pyaar. Kehne ko to koi Engineer, koi Doctor, to koi M.B.A ban jata hai, lekin asal me jo wo banta hai, wo kisi ANAATH se kam nahi kaha ja sakta, laakh koshish karke v wo saal do saal me ek do bar he muskil se 10 dino ke liye apne ghar aa pata hai, holi, diwali, dushehra, christmas & Eid to uske liye sunday ki chhutti ban kar reh jaate hai, ghar par maa ro kar reh jaati hai, or pita mann ko santona de kar khud ko sambhal leta hai. Lekin ye kab tak? Kya koi engineer, doctor, M.B.A, army man, bank karmchari ya teacher apni naukri chhod kar kavi apne ghar wapis ja sakega?

Lakh chaah kar bhi wo kuch nahi kar pata, or fir ye sochta hai, ki ye kaisa sapna dekha usne or uske pariwar ne, jiske pura hone par pura pariwar bikhar chuka hai, ek he pariwar ke 6 sadasya, desh ke 5 alag alag sehar me akele reh rahe hai, koi delhi, koi pune,koi chennai, to koi bangalore, or mata pita Ranchi me apne ghar par akele...

Ye kaisa bhayankar sapna tha, jisne pura hokar chhanik khushi to di, lekin pura hote he ek pure pariwar ko 5 bhaagon me baant diya, ye kaisa sapna tha, jisne ek Bete ko Beti se bhi jyada paraya bana kar hazaro mil dur pahucha diya, or agar aaj Beta holi ki chhutti me ghar aata hai, to maa chaah kar bhi use ye nahi keh paati ki "Beta ab wapis mat ja".

kehne ko ham unnati kar rahe hai, khushaal jindagi ji rahe hai, Metro ki life ji rahe hai, lekin har muskurate chehre ke andar ke gam ko nahi dekh pa rahe, dil ke bhitar dard ko daba kar or aankho me aanshu chhupa kar jiye ja rahe hai,chale ja rahe hai. Lekin kya kisine ye socha? Ki aisa jina kis kaam ka, jaha ek vyakti ko apne khud ki shaadi me jaane se pehle Company ke manager se permition leni padti ho, eklauti behan ki shaadi me bhai use vidaa karne na pahuch sake, or to or, jaha mata pita ke praan tyaag dene ke ghanto baad bhi bete ko ye pata nahi ho, ki wo ab sach ka anaath ho chuka hai...

Itna sub hone ke baad bhi, jab nayi pidhi ke log khud ek mata pita bante hai, tab wo bhi usi sapne ko dobara sanjote hai, or pehle ke he tarah is bar bhi is baat ki tanik bhanak nahi hoti, ki ye sapna firse ek pariwar ko tod dega.

Lekin wo kehte hai na, "Chale to Zindagi, or ruk jaaye to Yaaden ban jaati hai Zindagi"

Saturday, February 13, 2010

ganga jal

dev-nadi,bhagarathi,sursari,mandakani or na jaane kitne he naamo se jaane jane wali GANGA,jise ki purv-uttar me GANGA MAIYA v kaha jata hai, jiske jal ko amrit ke samtulya darja de kar log na kewal grahan karte hai,balki moksh paane ke liye usme snaan v karte hai,jis ganga ke jal ko log kawar me baandh kar,milo dur se paidal chal kar shiv ke alag alag dhamo me lakar shiv ke upar na kewal arpan karte hai,balki har tarah ke puja-paath or archana ko jiske bina adhura mana jata hai,jiski mitti tak ki puja ki jaati hai or jisme har saal laakhon nahi,balki karodon shradhalu dubki laga kar khud ko pavitra karte hai,jisme marnoprant har hindu ki asthiyan awasya bahai jaati hai taaki use moksh mil sake,to fir usi GANGA ka jal aakhir kyu har us hindu ko pilaya jata hai,jo maran saia par let kar apni aakhiri saanse gin raha hota hai?

Kya use wo ganga jal kewal is liye pilaya jata hai,ki wo jal uske gale me ja kar atak jaye or uski jo kuch gini-chuni,kast bhari tuti-futi saanse bachi hui hain,wo bhi ruk jaye,or use jald se jald kast bhare uske is jivan se mukti mile?

Ya fir use wo jal is liye pilaya jata hai,ki ganga ka jal uske andar jaate he use ek naiyi shakti mil jaati hai,jisse use moksh ki praapti hoti hai saath he uske jivan bhar ke paap ek pal me dhul jaate hai or swarg ke darwaje uske liye khud-b-khud khul jaate hai?

Agar ganga ke jal ke ek dhaar me itni shakti hai,to jo ganga marte vyakti ke gale me utar kar use shakti pradaan kar sakti hai, wo jivit vyaktiyo ke pida ko kyu nahi har leti? Kyu nahi uske jal se logo ke paap or dukh such me dhul jaate hai, kyu nahi usme snaan karke log rog mukt ho jate hai?

mai janta hu ki mere is kathan ke kuch hisson se kai log ittifaak nahi rakhte honge or shayad ispar beahdd aitraaz bhi jatayenge,lekin fir bhi aap sub se anurodh hai ki apne vichaar yaha avasya prakat kare,or GANGA ke sahi matlab or maksad ko samjhe or samjhaye.







amit~~

"its your problem"

प्राचीन काल में जब विश्व को ज्ञान और विज्ञान की एक धुरी तक का पता नहीं था, तब से ही भारत ने अपने युवा पीढ़ी को गुरुकुल में शिक्षा दे कर न जाने कितने ही विद्वान् और ग्यानी पैदा किये, हमारे वेद, उपनिषद, पूरण के साथ साथ पंचतंत्र तक यही बताते हैं की चाहे वो परशुराम हों या राम, अर्जुन हों या एकलव्य, गौतम बुद्ध हो या भरत , हर किसी ने गुरुकुल में ही रह कर शिक्षा ग्रहण की, और अपने अपने समय के महान ज्ञानियों में गिने गए, और आज भी हमारे समाज में लोग इनकी वीरता और विद्वता की गाथा गाते हैं, और अब भी बच्चों को स्कूलों में इनकी वीरता के पाठ पढ़ाये जाते हैं, लेकिन क्या यह पाठ पढ़ाने वाले आज के गुरुकुल के गुरु ये भूल गए हैं की इतिहाश में कभी द्रोणाचार्य ने युधिस्ठिर के लगातार एक ही पाठ कई बार समझाने पर भी न समझ में आने पर ये न कहा था की , "its your problem" , इतिहास गवाह है की जहाँ कृष्ण जैसे तीब्र बुद्धि वाले शिष्य मोजूद थे वहीँ सुदामा जैसे कम तीब्र या मंदबुद्धि विद्यार्थी भी मौजूद थे, पंचतंत्र की कहानियों का रहस्य तो आज भी स्कूलों में शिक्षक बड़ी शान से विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं की ये कहानियां राजा के ५ मुर्ख बालकों को विद्वान् बनाने का एक सबसे बड़ा श्रोत थीं, गुरुकुल के जीवन को आज के शिक्षक भले ही कठोर बताते हों, किन्तु वो जीवन आज के शिक्षण संस्थानों के जीवन से कई गुना बेहतर और सुलभ हुआ करता था, आज के समय में बच्चों का विकाश करने के नाम पर उन्हें केवल दबाया जा रहा है, fair copies, rough copies, reports, projects, homeworks, , uniform, class tests, exams, persentation, fees, यहाँ तक की खेलने तक पर पाबन्दी लगा कर उनके विकाश को रोका जा रहा है, इतने ही दबाव जैसे कम नहीं थे की साथ ही होम वर्क न करने या अधुरा किये जाने पर शिक्षकों की बेतहाशा मार झेल रहे है आज के बच्चे, पाठ न समझ आने पर उन्हें शिक्षकों से जवाब मिलता है "its your problem".

ये तो थीं स्कूलों की बात, अब जरा कॉलेजेस पर नज़र डालिए, विद्यार्थियों को कॉलेज में दाखिले के लिए पहले फॉर्म भरना पड़ता है, फिर एक प्रतियोगिता परीक्षा , इसके बाद नया ढोंग जिसे नाम दिया गया है "counseling" का! कई बार कई एक मेघावी छात्र इसी काउंसेलिंग का शिकार बनता है और उसे कॉलेज में पैसे की कमी और बढती हुई घुश्खोरी के वजह से दाखिला नहीं मिलता, अब बचे वो, जिन्हें दाखिला मिल गया है, लेक्च्र्ज़ , प्रक्टिकल क्लास्सेस , रिपोर्ट्स, अत्टेंदेंस, प्रोजेक्ट, फॉर्म फिलाप,रेग्स्त्रेसन जैसे चक्रवियुह में हर छात्र कहीं न कहीं फंस ही जाता है,कुछ होते हैं जो फसने के लायक होते हैं,तो कई मेघावी छात्र बीमार रहने या फिर पैसे की कमी के कारन इस चक्रवियुह में इस बुरी कदर फंसते हैं की निकल नहीं पाते और नतीजतन उन्हें अपने नामांकन से हाथ धोना पड़ता है, कॉलेज या शिक्षक से गुहार लगाने पर उन्हें एक ही जवाब मिलता है "its your problem"

अब आप ही बताइए, इतने दबाव में रह कर भी अगर किसी व्यक्ति को ये एक ही tag line हमेशा सुनाया जाये तो वो खुद को असहाय न समझे, मजबूर न समझे तो क्या समझे, उसपर से कई बार माता पिता की जरुरत से ज्यादा आशाएं और अपेक्षाएं, जिनपर खरा न उतर पाने पर अलग से फटकार, डांट और नाराज़गी!


और अब भी अभिभावक, शिक्षक और सरकार अपने अपने आँखों में पट्टी बाँध कर ये पूछते है एक दुसरे से, की आखिर बच्चों में आत्महत्या करने की दर साल दर साल बढती क्यूँ जा रही है? अगर इस सवाल के जवाब के तौर पर उनसे वापिस ये कहा जाये, "its your problem" तो उनका मुह पक्का देखने लायक होगा उस वक़्त!

समय के साथ बदलाव तो प्रकृति का नियम है, लेकिन उस नियम को इस कदर न ही लागु किया जाये की भीषण परिणाम सामने आ कर खड़े हो जाएँ, तो ही बेहतर होगा,सिक्षाको का रवैया भी विद्यार्थियों के प्रति शख्त रहना जरुरी है, लेकिन मानवता और ज्ञान दोनों यही कहते हैं, की हर बात के होने के पीछे के कारण को जाने बिना किसीको सजा देना या tag line सुना देना सारा सर अमानवीय व्यवहार ही है! कई बार सजा देना भी बेहद जरुरी हो जाता है, लेकिन शिक्षा और मानवता की कसौटी यही कहती है की सजा भी इसी दायरे में दी जाये की उसका कोई दुष्परिणाम न निकले, अगर आज के अभिभावक , शिक्षक, और सरकार आने वाली पीढ़ी को नष्ट होने से और आत्महत्या जैसे कारणों से बचाना चाहते हैं, तो इस विषय पर गंभीरता से सोचने की बेहद जरुरत है , ये ही समय का तकाजा है और मांग भी, साथ ही "its your problem" जैसे taglines को जड़ से उखाड कर फेकना ही होगा, तब ही एक सुन्दर, विकसित और सभ्य नविन पीढ़ी हमारे देश को मिल पायेगी !

Thursday, January 14, 2010

"MASA"

03 december 2009, st.peters burge se mai tver wapis aa raha tha, yunust (train ka naam) apni puri raftaar se bhaag rahi thi, tin dino ke prter's daure ne mujhe thaka diya tha, lekin khushi is baat ki thi ki jis kaam se mai peter's gaya tha, wo kaam pura ho gaya tha, jignesh ka admession waha ke L2 medical college me ho gaya tha, mere saath wali seat par he jignesh baitha baitha so gaya tha, pichle 25 dino me use pehli baar itne chain se sota dekha tha maine, mai baar-baar us russian ladki ke baare me soch raha tha, jo ek pari ke tarah achanak hame mili or bina kisi jaan-pehchaan ke hamare liye itna kuch kiya,na kewal jignesh ki admission karwane me usne hamari madad ki, balki peter's jese bade or anjaan sehar me hamare rehne ka bandobast apne khud ke ghar par kiya, "MASA" ko dekh kar koi ye nai keh sakta tha ki wo dil ki itni achchi or sachchi hai. jub hum din bhar ke kaam se thak kar laute to humne kisi hotel me room lene ka socha, lekin kahi kamra nai mile ke haalat me humne railway station ke waiting hall me he raat gujaarne ka socha, yaha tak ki hum waiting hall pahuch kar waha baith bhi gaye the,lekin tabhi jignesh ka phone baza, Masa ne phone kiya tha,usne humse pucha ki hum raat kaha guzarne wale hai, humne use bataya ki hotels me to jagah nahi hai,to ab raat railway station par he guzaar lenge, usne is baat par aapatti jatate hue hame 25 min tak wahi uska intizaar karne ko kaha.
Isi bich jignesh apni jagah se utth kar coffee pine chala gaya,tavi mere saath ki seat par baithe 2 avivaahit russian jodi me aapasi jhagda or tu-tu mai-mai honi suru ho gai,mai na chaah kar bhi unki baaten sun raha tha,dono kuch he dino pehle mile the,or ab dono ke bich halat itne bigadne lage the ki logo se bhare waiting hall me saraab ke nashe me dono jhagad rahe the, achanak ladka apni seat se utha or kahin chala gaya,tavi ladki ne muskurate hue mere taraf dekha or boli, aapko hamare is jhagde se jarur pareshani ho rahi hogi, kya karu? Mai bhi pareshan ho chuki hun, mehaz 7 dino pehle hum mile hai,or ab halat ye hai ki pichle 4 dino se har roj aisa he jhagda hota hai, maine ladki ki baat sun kar usse kaha, "jaha pyaar hota hai,wahi jhagde bhi hote hai,mujhe lagta hai wo aapse bahut pyaar karta hai" meri baat sun kar ladki hass padi, thodi der me ladka wapis aaya or ladki ko apne saath chalne ko kaha, ladki ne mana karte hue kaha ki wo yahi thik hai, itne me ladke ne palat kar ladki ko 2-3 abhadra gaaliyan de di or chala gaya, ladki achanak meri aor mudi or muskurate hue boli, "or aap kehte hai ki wo mujhse pyaar karta hai" mai uski ye baat sun kar nishabdh sa ho gaya tha,uske is waaky ne mujhe kuch palo ke liye ye sochne par majbur kar diya tha ki mai kya jawab du use, ant me maine is baat par kuch na he kehna uchit samjha or chup chap baith gaya.
Tabhi achanak jignesh mere paas aaya or bola,bhaia,masa ke phone kiye lagbhag 25 min ho chuke hai, wo ab tak aai nahi, tabhi achanak 23-24 saal ki ek 5'10 inch height ki ek russian ladki hamare paas aai or hame "DRAST-VICHE" kaha, wo masa thi, hum ab se pehle kavi aamne saamne mile nahi the,pichle 2 dino me jo bhi baaten hui thi,wo sub phone par he hui thi,humne bade he formal tarike se ek dushre se apna parichay karwaya,hum dono ko dekhte he masa ye baat bakhubi samajh gai thi ki hum dono kaafi thake hue hai,isi liye bina kisi or deri ke usne hamara saaman clock room me jama karwaya or hame paas ke ek coffee house me le gai, jignesh or masa ne to waha green tea liya, lekin maine black coffee wo bhi bina chini ke lena thik samjha, kyuki meri aankhen ab mujhe jawab de rahi thi, maine coffee order karte waqt usme 2 chammac coffee dalwai thi, or jese he bill pay karne ke liye counter par coffee aage badha to pata chala ki ab meri coffee 95 ruble ki ho gai hai,maine counter par baithe vyakti se pucha ki coffee ka rate to 50 ruble likha hua hai desk par, to is coffee ke liye 95 kyu? To usne jhatt se jawab dete hue kaha "sir aapne 2 chammach coffee dalwai hai" ye sun kar mere aascharya or hasi ka koi thikana na raha, mai waha 160 indian rupees ki ek cup coffee pine wala tha, counter se coffee le kar mai table par aa kar baitha,waha masa or jignesh pehle se baithe the, coffee pite hue mai masa se baaten karne laga, baato baato me usne bataya ki wo Arkhangelsk ki rehne wali hai,or yaha st.peter's me pichle 8 saalo se reh rahi hai,uske mata or pita Arkhangelsk me he hai or ek bhai jo usse bada hai,wo Moscow me apni biwi ke saath rehta hai or wahi job karta hai,masa yaha peter's me akeli he rehti hai or kisi company me manager ke pad par kaam karti hai. Baato baato me coffee khatam ho gai, maine ek or coffee lena thik samjha,kyuki ab tak mujhe pata nahi tha ki mujhe peter's jese anjaan,vishaal or mehnge sehar me raat ko sone ki jagah milegi bhi ki nahi,dushri coffee lekar jub mai wapis aaya, tab masa ne mujhse mere or mere pariwar ke bare me pucha, maine uske saare sawalo ka jawab diya,or isi bich meri coffee bhi khatam ho gai.Tavi masa apne jagah se uthi or hame boli, "chalo" maine pucha kaha? usne muskurate hue kaha,are baba chalo to. Rashte me masa ne apne kisi dost se phone par baaten ki, or fir hum dono ko saath lekar ek super-market pahuchi,waha se kuch chigen kharid kar jub hum wapis nikle,tab mere or jignesh ke samajh me ye nahi aa raha tha ki ye ladki aakhir kar kya rahi hai? Achanak masa ne ek taxi roki or hame taxi me baithne ko kaha,humne fir masa se pucha, masa hum ja kaha rahe hai,usne fir se wahi jawab diya, "are baba,chalo to".... to be cont..