यूँ तो कहने को आज मानव ने काफी तरक्की और खोजें कर ली है, लेकिन क्या सच में मानव इन खोजों और तरक्कियों का सही उपयोग कर पा रहा है? क्या वह इन तरक्कियों से सच मच खुश है? या फिर ये सारे खोज उसके लिए भस्मासुर को दिया शिव का वरदान साबित हो रहा है? आज मुझे मेरी ८ वीं कक्षा की वो वाद-विवाद प्रतियोगिता याद आ रही है, जिसमे हमारे प्रधानाचार्य ने हमें गालिभ की कही एक बात बताई थी, "सावधान ऐ मनुष्य, यदि विज्ञान है तलवार, तो तज कर दे उसे फेंक मोह स्मृति के पार" शायद गालिभ को उस समय बखूबी यह एहसास हो चूका था की विज्ञान के आविष्कारों का मनुष्य गलत उपयोग करेगा, और परिणाम भी खुद उसे हे भोगना पड़ेगा!
आज जब अखबार या किसी समाचार पत्रिका पर नजर डालता हूँ, तो हर पन्ने पर एक आतंकवादी गतिविधि या तो किसी उग्रवादी के द्वारा किया गया बम बिस्फोट जैसी ही घटनाएँ नज़र आती हैं, आज तक टीवी, रेडियो, इन्टरनेट या फिर समाचार पत्रिकाओं में देखि, सुनी या पढ़ी घटनाओं से वैसा एहसास या अनुभव नहीं हो पाया था, जो आज मैंने महसूस किया!
सुबह ८:०० बजे हर रोज की तरह मैं हॉस्पिटल के लिए निकल चूका था, हॉस्पिटल पहुच कर पाया की हॉस्पिटल पर पुलिस की टुकडियां मौजूद हैं, जब मैं ड्यूटी पर पंहुचा टब एक पतिएन्त ने बताया की करीब ४० मिनट पूर्व मोस्को के "लुब्लियांका" मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो ट्रेन के २ रे डब्बे के अन्दर एक जोरदार बम धमाका हुआ, जिसमे करीब २५ लोगों के मरने की खबर है, जबकि २५ से भी ज्यादा लोग घायल बताये जा रहे हैं! मनन थोडा विचलित हो गया, क्यूंकि मई भी वह से काफी पास ही रहता हूँ, लोगों ने बताया की मेट्रो स्टेशन के कैमरा से पता चला की एक औरत ने अपने शारीर पर बम बाँध कर इस धमाके को अंजाम दिया, मनन ही मन मैं सोच रहा था, की जननी कही जाने वाली एक औरत ऐसे काम करने से पहले क्या खुद के बच्चे का चेहरा देखना भूल जाती हैं? क्या उसे ये समझ नहीं होता की अगर ऐसे ही किसी धमाके में उसके खुद की औलाद मर जाए तो उसपर क्या बीतेगी? इन्ही सवालों में उलझा हुआ मैं अपने सेनिओर डॉक्टर के केबिन में पंहुचा, डॉक्टर को मरीजों की हिस्टरी दे कर मैं वहां से कुछ अन्य मरीजों की हिस्टरी ले हे रहा था कि डॉक्टर साहब ने मुझसे पुचा, अमित, तुम्हारे देश में तो ये हर रोज होता है, कैसे रहते हैं लोग वहां? क्या उन्हें डर नहीं लगता? यह सुन कर मैं कुछ देर चुप रहा, तभी अचानक टीवी पर खबर आई कि इस बार फिरसे मास्को मेट्रो के हे पार्क कुल्तुरनी स्टेशन पर एक और ट्रेन में धमाका हुआ, और इस बार भी एक महिला ने ही अपने शारीर पर बम बांध कर धमाके को अंजाम दिया, और इस बार करीब १६ लोगों कि मृत्यु हुई है और २० से ज्यादा घायल बताये जा रहे हैं!
यह सुन कर डॉक्टर साहब ने कहा, अब तो मुझे सच में चिंता हो रही है, ये लोग ऐसा क्यूँ करते हैं? मैंने बस यूँ ही जवाब दे दिया, सर , वे लोग पागल हैं, और हमारे पागल खानों में इतनी जगह नहीं बची है कि उन सब को वहां भारती किया जा सके, बस इसी लिए वे लोग उत्पात मचा रहे हैं बहार! इसपर डॉक्टर ने तड़क कर जवाब दिया, तब तो इन सारे पागलों को मार डालना चाहिए, और हाँ हिंदुस्तान में पागलों कि संख्या बेहद ज्यादा है शायद, तभी आये दिन वहां बम धमाके होते रहते हैं, तुम्हारी सरकार उन पागलों का कुछ करती क्यूँ नहीं? मैंने बस इतना ही जवाब दिया, "सर, पागल अगर आपके खुद का भाई या बहिन हो तो उसे आप मार डालेंगे? या फिर उसका इलाज करेंगे?" डॉक्टर ने तो मेरी बात पर हस दिया, और बोले, इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मैं खुद से और उनकी बात से संतुस्ट नहीं हूँ, क्या सच में इन सब का जिम्मेदार विज्ञान है? या फिर उसका इस्तेमाल करने वाला मनुष्य? मेरे हर सोच में मुझे मंनुस्य जिम्मेदार नज़र आता है, पर अब तक मै ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर कब तक ये मौत का नंगा नाच चलेगा? कब तक हम जेहाद, आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद के नाम पर खड़े खड़े हाथ पर हाथ धरे ये मौत का तमाशा देखते रहेंगे? कब तक मनुष्य अपने ही आविष्कारों का गलत इस्तेमाल करता रहेगा और खुद ही उसका खामियाजा भुगतता रहेगा? कब तक हर माँ अपने बेटे के मरने का सोक मनाती रहेगी और कब तक हर बाप अपने कलेजे को मजबूत बनाता रहेगा?
आज कोई देश अपनी ताकत दिखाने के खातिर विज्ञान का दुरूपयोग कर रहा है, तो कोई आतंकवादी बन कर विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए उसका जवाब दे रहा है, क्या वे इस बात को जरा सोचते भी नहीं, कि जिस परमाणु वैज्ञानिक ने परमाणु उर्जा कि खोज कि थी, उसने इस उर्जा को खोजने के बाद इसका प्रयोग कहा करना चाह था, या फिर जिसने बमों का आविष्कार किया, उसने इसे किस इस्तेमाल के लिए बनाया था? आज अगर मनुष्य अपने इस दुरुपयोगी रवैये से बाज़ आ कर थोड सोंच विचार कर कोई फैश्ला ले, तो उसे पता चलेगा कि हर रोज उसने कितनी माओं को रोने से बचा लिया और कितने हे पिताओं को टूटने से रोक लिया, लेकिन ऐसा होना तो जैसे आज के समय में नामुमकिन हे दीखता है!
अफ़सोस कि बात तो ये है, कि आज हमारी सरकारें भी इनसे नजाद पाने के लिए कोई थोश कदम नहीं उठा रही, महात्मा गाँधी को रास्ट्र पिता कह तो दिया हमने, और विश्व ने उन्हें "विश्व शान्ति दूत" का नाम तो दे दिया, लेकिन उनके विचारों को आतंकवाद के खिलाफ इस्तेमाल में नहीं ला रहा कोई भी, हर किसी को खून के बदले खून और आँख के बदले आँख ही चाहिए, सच्चाई शायद ये है कि इन्हें महात्मा गाँधी नहीं, बल्कि हम्मु राबी ज्यादा पसंद है, और ये हमेशा उसी कि कानून संहिता का उप्याओग करते हैं!
किसीको विज्ञान का सदुपयोग कर अपने देश को आगे बढाने कि नहीं पड़ी, जिसे देखो वो विज्ञान का दुरूपयोग कर पडोशी देश को पीछे करने में लगा है, आतंकवादी अपनी बात मनवाने के लिए बम बिस्फोट करते हैं, सैकड़ों लोगों कि जाने ले कर उनके खून को पानी कि तरह बहाते हैं, तो उग्रवादी रेलवे कि पटरियां उड़ा कर रेल कि दुर्घटना को अंजाम देते हैं!
अफ़सोस तो ये है कि इतना सुब होने पर भी मनुष्य के कानों में जू तक नहीं रैंग रही, और लगातार वो एक के बाद एक ऐसे ही काम करता जा रहा है जिससे मानव जाती गर्त कि ओर कदम डर कदम बढती जा रही है, आज ग्लोबल वार्मिंग से ले कर बम धमाके तक ने एक सामान्य मनुष्य को इतना डरा कर रख दिया है कि वो अपने घर से बहार निकलने से पहले १० बार सोचता है, और इन्ही कारणों से उसने आज खुदको घर पर कैद कर लिया है, पता नहीं कब थमेगा ये बवंडर, और कब होगी एक नयी सुबह, जो हम सुब को रहत और शुकून भरी एक शांत-खुशहाल जिंदगी देगी, "मुझे इन्तिज़ार है उस सुबह का"
Thursday, April 1, 2010
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4 comments:
tumhari post padh kar ye sukun milta hai ki hamare DOCTOR ke dil me ek khubsurat bhartiya ka dil basta hai...........god bless dear!!
bahut accha likha hai amit bhai
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